पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/३८६

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विनय-पत्रिका

तोसो नतपाल न कृपाल, न कँगाल मो-सो

दयामें बसत देव सकल धरम । राम कामतरु-छाँह चाहै रुचि मन माँह, तुलसी बिकल, वलि, कलि-कुधरम ॥ ४॥ भावार्थ-जगत्में जहॉतक मालिक हैं उनको मैंने भलीभॉति समझ और पहचान लिया है । वे थोडेमें ही प्रसन्न हो जाते हैं और थोड़ेमें ही गरम हो उठते हैं। न तो वे प्रेमके निभानेमें ही चतुर हैं और न नीति ही जानते हैं। उनकी चालें सब बुरी हैं, क्योंकि काल, कर्म और मायाने उन्हे अपने अधीन कर रक्खा है ॥ १ ॥ हे नाथ ! ( अपने ) बलके भ्रमसे बड़े-बड़े दैत्य-दानव आदि महामूर्ख बनकर ( सबके ) सिरपर चढ़ गये थे और उन्होंने लोकपालोंको भी जीत लिया था। इन लोगोंको इनके मालिकों ( देवताओं ) ने पहले तो (इनके तपपर ) रीझरीझकर ( मनमाने) वर दिये, पर पीछेसे नाराज हो-होकर इनके घरोंको खाहा करा दिया ! ( आपकी प्रार्थना करके ) अपने सेवकोंको बिगाड़ते समय किसीको भी शर्म न आयी ॥२॥ हे रामजी ! सावधान सेवकोंको तो आप ही भलीभाँति पहचानते हैं, क्योंकि आप ही सच्चे समर्थ, सद्गुणोंके स्थान और परमपवित्र हैं। आप सबपर कृपा करने- । वाले, प्रसन्नमुख, सदा एकरस और एकरूप हैं। आपको घट-घटका भेद विशेषरूपसे मालूम है ॥३॥ हे कृपालो ! आपके समान शरणा- गत कंगालोंको पालनेवाला दूसरा कोई नहीं है और मुझ-सरीखा कोई कंगाल नहीं है। हे देव ! सारे धर्मोंका निवास दयामें ही है (अतः मुझ दीनपर दया कर दीजिये)। फिर हे नाथ ! आप तो