पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/३९०

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, ३९५ विनय-पत्रिका डरा करते हैं (कि कहीं प्रेमको अनन्यता और विशुद्धतामे कमी न आ जाय)। यदि खामी और सेवक दोनों इस रीतिसे प्रेम करते रहे,और (प्रेमके) नीति नियमोंको सदा निबाहते रहें तो उन ( के प्रेम) की टेक कमी टल नहीं सकती और वह सीमाको पहुँच जाती है ॥२॥ शुकदेव, सनकादि, प्रह्लाद और नारद आदि भक्तगण कहते हैं कि परम विरक्त होनेसे ही श्रीरघुनाथजीकी महान् (अनन्य विशुद्ध) भक्ति मिलती है। (भोगोंसे परम वैराग्य उसीको प्राप्त होता है जो भगवान्को तत्वसे जान लेता है, अतएव परमात्माके) ज्ञान बिना भक्तिकी प्राप्ति नहीं होती; किन्तु वह ज्ञान, हे नाथ ! आपके हाथमें है (ज्ञान किसी साधनसे नहीं होता, यह तो भगवत्कृपासे प्राप्त होता है), इसी बातको समझकर चतुर लोग आपके चरणोंपर आकर गिरते हैं (सारे साधनोंको छोड़कर आपकी शरणमें आते हैं ) ॥ ३॥ छः शास्त्रोंके मत भिन्न-भिन्न हैं। पुराणोंका भी मत एक-सा नहीं है और वेद भी नित्य नेति-नेति करते रहते हैं। फिर औरोंके सम्बन्धमें तो कहना ही क्या है ? ( इस अवस्थामें आपकी शरणागतिको छोड़कर आपको तत्वसे जाननेके लिये और उपाय ही क्या है ? ) (इसलिये) मुझे तो बस, एक श्रीराम-नामका आश्रय लेना, यही बात अच्छी जान पड़ती है और इसीसे कल्याण हो सकता है, क्योंकि इससे तुलसीदास-सरीखे भी ( संसार-सागरसे) तर गये हैं ॥ ४॥ । [२५२ ] बाप ! आपने करत मेरी धनी घटि गई। लालची लबारकी सुधारिये वारक, बलि, 'रावरी, भलाई सवहीकी भली भई ॥१॥