पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/३९१

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विनय पत्रिका रोगवस तनु, कुमनोरथ मलिन मनु, पर-अपवाद मिथ्या-बाद बानी साधनकी ऐसी विधि, साधन बिना न लिधि विगरी वनावै कृपानिधिकी कृपा नई ॥२॥ पतित-पावन, हित आरत-अनानिको, निराधारको अधार, दीनबंधु, दई। इन्हमें न एको भयो, बूझिन जूझयोनजयो, ताहिते त्रिताप-तयो, लुनियत खाँगसूघोसाधुको, कुचालिकलिते अधिक, परलोक फीकी मति, लोक-रंग-रई। बड़े कुसमाज राज ! आजुलौ जो पाये दिन, महाराज ! केह भाँति नाम-ओट लई ॥४॥ राम ! नामको प्रताप जानियत नीके आपु, मोको गति दूसरी न विधि निरमई। खीशिवे लायक करतच कोटि कोटि कट, रोझिवे लायक तुलसीकी निलजई ॥५॥ भावार्थ-हे मेरे बापजी ! मैंने अपने ही हाथों अपनी करनी बदत ही बिगाड़ डाली है, आपकी वतैया लेता है, इस लोभी और झूटकी वात एक बार तो सुधार दीजिये, क्योंकि जिस-जिसके साय आपने भलाई की, उसीकी बात बन गयी ( दया करके आज मेरी भी बिगड़ी बना दीजिये।)॥ १॥ शरीर रोगी है, मन बुरी-धुरी कामनाओंमे मग्नि हो रहा है और वाणी दूसरोंकी निन्दा करते और झुट बोल्टने-बोटने नए हो गयी है (जिस तन-मन-वचनसे साधन ये तीनों ही साधनके योग्य नहीं रहे, परन्तु ) साधनोंका यह