पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/३९४

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विनय-पत्रिका अयवा राजीसे, मुसकराकर या अनखाकर किसी भी तरह इतना क्यों नहीं कह देते कि 'तुलसी! तू मेरा है। इतना कह देनेमात्रसे ही, हे महाराज रामचन्द्रजी ! मैं आपकी शपथ खाकर कहता हूँ, उसी क्षण मेरा सारा दुःख जड़से नष्ट हो जायगा और समस्त सुख मेरे अनुकूल हो जायँगे ॥३॥ [२५४] राम ! रावरो नाम मेरो मातु-पितु है। सुजन-सनेही, गुरु-साहिव, सखा-सुहृद, राम-नाम प्रेम-पन अविचल वितु है ॥१॥ सतकोटि चरित अपार दधिनिधि मथि लियो काढ़ि वामदेव नाम-घृतु है। नामको भरोसो-बल चारिह फलको फल, सुमिरिये छाडि छल, भलो कृतु है ॥ २॥ खारथ-साधक, परमारथ-दायक नाम, राम-नाम सारिखो न और हितु है। तुलसी सुभाव कही, साँचिये परैगी सही, सीतानाथ नाम नित चितहूको चितु है ॥३॥ मावार्थ-हे श्रीरामजी! आपका नाम ही मेरा माता-पिता, खजन- सम्बन्धी, प्रेमी, गुरु, खामी, मित्र और अहैतुक हितकारी है । और. आपके नामसे जो मेरा अनन्यप्रेम है, वही मेरा अटल धन है ॥१॥ शिवजीने सौ करोड़ चरित्ररूपी अगाध दधि-सागरको मथकर उससे राम-नामरूपी धी निकाला है। आपके नामका बल-भरोसा अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष-चारों फलोंका (चरम ) फल है। कपटभाव छोड़कर