पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/३९८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

५०३ विनय-पत्रिका घबराहटसे हृदय जलने लगता है ( दीन और पतितोकोतारनेवाले होकर भी मुझ शरणागत दीनको अबतक क्यों नहीं अपनाया ? यही सोचकर हृदयमें जलन होने लगती है और इसीसे मनमानी बातें कह बैठता हूँ) ॥२॥ (और कहूँ भी किससे, क्योंकि ) न तो मेरा कोई मित्र है, न सच्चा सेवक है, न सुलक्षणा स्त्री है और न कोई नाथ है। मेरे तो मॉ-बाप आप ही हैं, तुलसी यह सची बात कह रहा है। मेरी तो थोड़ी-सी बात है, बिगडी होनेपर भी सुधर जायगी; किन्तु, बलिहारी ! मैं आपकी शपथ खाकर कह रहा हूँ, मैं तो आपकी बात ही रखना चाहता हूँ ( कहीं आपका पतितपावन और शरणागत- वत्सल बाना न लज जाय ) ॥३॥ . [२५७ ] दीनबंधु ! दूरि किये दीनको न दूसरी सरन । आपको भले हैं सब. आपनेको कोऊ कहूँ, ____सवको भलो है राम ! रावरो चरन ॥ १॥ पाहन, पसु, पतंग, कोल, भील, निसिचर । ___ काँच ते कृपानिधान किये सुबरन । दंडक-पुहुमि पाय परसि पुनीत भई, उकठे, बिटप लागे फूलन-फरन ॥२॥ पतित-पावन नाम वाम हू दाहिनो, देव! दुनी , न दुसह-दुख-दुषन-दरन । सीलसिंधु ! तोसों ऊँची नीचियो कहत सोभा, तोसो , तुही तुलसीको आरति-हरन ॥३॥ भावार्थ-हे दीनबन्धो! यदि आपने इस दीनको (अपनी शरणसे)