पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/४०४

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- ४०९ विनय-पत्रिका डकेकी चोट दुःखोंमें वहा चला जा रहा हूँ। जव मेरे लिये इस लोकमें ही कहीं गैर नही है, तब परलोकका क्या भरोसा करूँ ? • हे श्रीरामजी! मैं आपकी बलैया लेता हूँ, मैं तो एक आपके नामही- केहाय बिक चुका हूँ, (मेरा लोक-परलोकतो उसीसे बनेगा) ॥१॥ कर्म, स्वभाव, काल, काम, क्रोध, लोभ और मोहरूपी बड़े-बड़े आहोने और ( साधनहीनतारूपी ) घोर दरिद्रताने मुझको बडे जोरसे पकड रक्खा है। हे महाराज ! बाँधनेके लिये करोड़ों योद्धा हैं, परन्तु बन्धनसे छुड़ानेके लिये तो केवल एक आप ही हैं। अतएव हे प्रभो ! मेरी रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये। मैं पापरूपी तीनों तापोसे जल रहा है। अपनी कृपादृष्टिकी सुधावृष्टिसे इन तापोको शान्त कीजिये) ॥ २॥ हे प्रभो ! ( दूसरे किसके पास जाऊँ !) सबकी रीझ, बूझ और प्रीति-विश्वास एक आपके ही द्वारपर है। ( आपके ही दिये हुए अधिकारसे देवतागण आपके ही खजानेसे अपने सेवकोंको कुछ दिया करते हैं, परन्तु वे मुक्ति नहीं दे सकते । 'उन सबकी पूजा भी आपकी ही पूजा होती है, क्योंकि सबके मूल आप ही हैं। (मै तो दूधका जला मट्ठा भी फूंक-फूंककर पीता हूँ। भाव यह कि आपको छोड़कर दूसरोंको भजनेसे कभी परम सुख और - दिव्य शान्ति नहीं मिली, इसलिये बहुत सावधान होकर चलता हूँ। सुखके लिये देवताओंको पुकारते-पुकारते हार गया और जाति- गत तया चाल-चलन सभीसे हाथ धो बैठा । इसलिये अब मैं केवल आपके जूठनका ही लालची हूँ। मैं दूधसे नहीं नहाना चाहता । भाव, मुझे स्वर्गके ऐश्वर्यकी इच्छा नहीं है, मैं तो केवल आपके चरणोमें पड़े रहना चाहता हूँ॥३॥ मैं और कहीं ( दूसरोका