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विनय-पत्रिका
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को न परत, विनु कहे न रह्यो परत,
बड़ो सुख कहत बड़े सों, बलि दीनता।
प्रभुकी बड़ाई घड़ी, आपनी छोटाई छोटी,
प्रभुकी पुनीतता, आपनी पाप-पीनता ॥१॥
दुहू ओर समुझि सकुचि सहमत मन,
सनमुख होत सुनि स्वामी-समीचीनता ।
नाथ-गुनगाथ गाये, हाथ जोरि माथ नाये,
नीचऊ निवाजे प्रीति-रीतिकी प्रबीनता ॥२॥
एही दरवार है गरव तें सरव-हानि,
लाभ जोग-छेमको गरीवी-मिसकीनता ।
मोटो दसकंध सो न दूवरो विभीषन सो,
. बूद्धि परी रावरेकी प्रेम-पराधीनता ॥३॥
यहाँकी सयानप अयानप सहस सम,
सूधौ सतभाय कहे मिठति मलीनता ।
गीध-सिला-सबरीकी सुधि सब दिन किये
होइगी न साई सो सनेह-हित-हीनता ॥४॥
सकल कामना देत नाम तेरो कामतरु,
सुमिरत होत कलिमल-छल-छीनता ।
करुनानिधान ! बरदान तुलसी चहत,
सीतापति-भक्ति-सुरसरि नीर-मीनता
मावार्थ-हे नाथ ! कुछ कहा भी नहीं जाता और कहे बिना
रहा भी नहीं जाता । आपकी वलैया लेता हूँ। ( यद्यपि ) बड़ोंके
सामने अपनी गरीबी सुनानेमें बहुत सुख मिलता है । (तथापि कहाँ
पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/४०७
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