पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/४०७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

- - विनय-पत्रिका ४१२ [२६२] को न परत, विनु कहे न रह्यो परत, बड़ो सुख कहत बड़े सों, बलि दीनता। प्रभुकी बड़ाई घड़ी, आपनी छोटाई छोटी, प्रभुकी पुनीतता, आपनी पाप-पीनता ॥१॥ दुहू ओर समुझि सकुचि सहमत मन, सनमुख होत सुनि स्वामी-समीचीनता । नाथ-गुनगाथ गाये, हाथ जोरि माथ नाये, नीचऊ निवाजे प्रीति-रीतिकी प्रबीनता ॥२॥ एही दरवार है गरव तें सरव-हानि, लाभ जोग-छेमको गरीवी-मिसकीनता । मोटो दसकंध सो न दूवरो विभीषन सो, . बूद्धि परी रावरेकी प्रेम-पराधीनता ॥३॥ यहाँकी सयानप अयानप सहस सम, सूधौ सतभाय कहे मिठति मलीनता । गीध-सिला-सबरीकी सुधि सब दिन किये होइगी न साई सो सनेह-हित-हीनता ॥४॥ सकल कामना देत नाम तेरो कामतरु, सुमिरत होत कलिमल-छल-छीनता । करुनानिधान ! बरदान तुलसी चहत, सीतापति-भक्ति-सुरसरि नीर-मीनता मावार्थ-हे नाथ ! कुछ कहा भी नहीं जाता और कहे बिना रहा भी नहीं जाता । आपकी वलैया लेता हूँ। ( यद्यपि ) बड़ोंके सामने अपनी गरीबी सुनानेमें बहुत सुख मिलता है । (तथापि कहाँ