पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/४११

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विनय-पत्रिका सीतापति सारिखो न साहिब सील-निधान, कैसे कल पर सठ! बैठो सो विसरि-सो॥५॥ जीवको जीवन-प्रान, प्रानको परम हित प्रीतम, पुनीतकृत नीचन निदरि सो। तुलसी ! तोको कृपालु जो कियो कोसलपालु, चित्रकूटको चरित्र चेतु चित करि सो॥५॥ भावार्थ-अरे मन ! एक बार तू मेरी बात सुन ले । फिर तुझे जो अच्छा लगे सो करना । तू अपने चारों नेत्रों (दो बाहरके और मन-बुद्धिरूप दो भीतरके ) से देखकर बता कि तीनों लोको और तीनों कालोंमें भगवान्के समान तेरा हित करनेवाला कहीं कोई है?॥१॥ शरीररूपी घरमें रहकर तूने अनेक ( योनियोंमें) नये. नये ( सम्बन्धियोंके ) प्रेमका अनुभव किया और उनके कपटभरे प्रेमको भी परख लिया । अन्तमें सबके प्रेमका भेद खुल गया । (जगत्के इन विषय-जनित सम्बन्धी ) मित्रोंका समाज क्या है। यह दगाबाजीका सौदासूत (लेन-देनका व्यवहार ) है। जब जिसका काम (खार्य ) होता है तब वह पैरोंपर गिरने लगता है [ परन्तु काम निकल जानेपर कोई बात भी नहीं पूछता] ॥ २॥ देवता भी बडे चतुर हैं, तूने उनको भलीभाँति पहचाना है या नहीं ? वे पहले करोडगुना लेते हैं तब कहीं एक गुना देते हैं । अब रहे कर्म-धर्म सो वे भी श्रीरामजीके [ आधार ] बिना केवल परिश्रममात्र हैं । ( जो भगवान्को छोडकर, ईश्वरकी परवा न कर केवल अपने सत्कोपर विश्वास करते हैं उनके वे सत्कर्म ठहर ही नहीं सकते) उनका करना तो राखमें हवन करने या ऊसर जमीनपर पानी बरसनेके