पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/४१५

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विनय-पत्रिका ४२० दुःखदावानलसे ) जलता रहा । परन्तु जब मैं चित्रकूट गया, ( ओर वहाँ आपका प्रेमपूर्वक भजन करने लगा ) तब (आपकी कृपासे) मैं इस कलिकी सारी कुचालें तो समझ गया (तथापि ) अब मैं अपने ही डरसे डर रहा हूँ॥३॥ मैं हाथ जोड़कर प्रभुके सामने खड़ा हुआ मस्तक नवाकर कह रहा हूँ कि पहचाना हुआ चोर फिर जीवको (प्रायः ) मार ही डालता है; (कलियुग पहचाना हुआ चोर है, वह दॉव देख रहा है ) इस बातको सुनकर तुलसी अपने खामीसे विनय करके निश्चिन्त हो चुका ( अब आप खयं ही उचित समझकर उपाय कीजिये)॥४॥ [२६७ ] पन करि हाँ हठि आजुते रामद्वार परयो हों। 'तु मेये यह विन कहे उठिहाँ न जनमभरि, प्रभुकी सौकरि निबरयो हौं । १॥ दै दै धक्का जमघट थके, टारे न टरयो हो। उदरदुसह साँसति सही वहुवार जनमि जग, नरकनिदार निकरयोहीं२॥ हो मचला लै छाडिहौं, जेहि लागि अरयो हो। । तुम दयालु, बनिहै दिये, बलि, बिलँव न कीजिये, जात गलानि गरयो हाँ॥३॥ प्रगट कहत जो सकुचिये अपराध-भरयो हाँ। तो मनमें अपनाइये, तुलसीहि कृपा करि, कलि बिलोकि हहरयो हौं ॥४॥ भावार्थ-हे श्रीरामजी । आजसे मैं सत्याग्रह करनेकी प्रतिज्ञा