पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/४६०

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- ४६५ परिशिष्ट .१४५-विभीषण- विभीषणने रावणको समझाया कि श्रीरामचन्द्रजी जगत्पिता परमात्मा हैं और श्रीसीताजी जगजननी हैं। इसलिये तुम जगज्जननी श्रीसीताजीको उनके पास लौटाकर उनसे क्षमा माँगो । वे प्रमु दयालु हैं, तुम्हें क्षमा कर देंगे। इस बातको सुनकर रावण बहुत ही क्रोधित हुआ और विभीषणको लात मारकर अपने नगरसे बाहर निकाल दिया। विभीषणने निराश और निराश्रय होकर मनमें कहा- जिन्ह पायन्ह के पादुकन्हि भरतु रहे मन लाइ । ते पद भाजु मिलोकिहउँ इन्ह नयनन्हि अब जाइ ॥ इस प्रकार अनन्यभावसे भावित होकर जब विभीषण भगवान्के चरणोंमें आ गिरा तो भगवान्ने उसे प्रेमसे लकेश कहकर हृदयसे लगाया । प्रमुकी भक्तवत्सलताका यह कैसा उदाहरण है ! २६२-दस लीस अरपि- प्रवल प्रतापी राजा रावण एक बार कैलास-पर्वतपर जाकर तपस्या करने लगा। वह घोर तप करके अन्तमें अपने सिरको काट-काटकर अग्निमें हवन करने लगा। जब नौ सिर काटकर हवन कर चुका और दसवाँ सिर काटनेके लिये खड्न उठाया, तब शङ्करजी वहाँ प्रकट हो गये और उन्होंने उससे वर मांगनेके लिये कहा, फलखरूप उसे लङ्काका राज्य मिला । १७४-वलि-- जब राजा बलिने वामनभगवान्को तीन पग पृथ्वी दान देनेका वचन दे दिया, तब, शुक्राचार्य ने उसको श्रीविष्णुभगवानके वि०प० ३०--