पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/४६१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

विनय-पत्रिका ४६६ छलके विषयमें बहुत कुछ समझाकर दान देनेसे रोका । परन्तु सत्यसकल्प राजा बलि अपनी प्रतिज्ञासे तनिक भी न हटा । उस समय उसने अपने गुरु शुक्राचार्यका सत्यके पीछे परित्याग कर दिया। २१३-नृग- सत्ययुगमें राजा नृग बड़े ही दानी राजा हो गये हैं। यह नित्य एक करोड गो-दान किया करते थे। एक बार एक बादणको दान दी हुई गाय भूलसे आकर उनकी गायोंमें मिल गयी और उन्होंने उसे अपनी गायोंके साथ दूसरे ग्रालणको दान कर दिया। पहला ब्राह्मण अपनी भूली गायको तलाश करता हुआ जब दूसरे ब्राह्मणकी गायोंमें उसे चरते हुए देखा तो उस ब्राह्मणको चोर बताकर अपनी गाय हाँक ले चला। फिर दोनों ब्राह्मणोंमे झगडा होने लगा। दोनों लडते-झगड़ते राजाके पास पहुंचे और राजाको इंसाफ करनेके लिये कहा । राजा दोनोंकी बातें सुनकर सिर हिलाता रहा । कुछ उसकी समझमें न आया कि क्या किया जाय ! इसपर वे दोनों ब्राह्मण क्रोधित हो उठे, उन्होंने राजाको शाप दिया कि 'हे राजा ! तूने हमें धोखा दिया है, इसलिये जा गिरगिटकी योनिको प्राप्त हो ।' राजा गिरगिट हो गया और वेचारा सहस्र वर्ष- पर्यन्त द्वारकाके एक कुऍमें पड़ा रहा। श्रीकृष्णावतारमें भगवान्ने उसे कुएँसे निकाला । फिर शापमुक्त होकर वह दिव्यशरीर धारण कर वैकुण्ठ चला गया। २१५-पूतना-- यह पूर्वजन्ममें एक अप्सरा थी। वामन भगवानका बालखरूप