पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/५२

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विनय-पत्रिक सुन्दर है, नेत्र पीले हैं। तुम्हारे सिरपर भूरे रंगकी कठोर जटाओंका जूड़ा बँधा हुआ है । तुम्हारी भौंहें टेढी हैं। तुम्हारे दॉत और नख चनके समान है, तुम शत्रुरूपी मदमत्त हाथियोंके दलको विदीर्ण करनेवाले सिंहके समान हो॥ २ ॥ तुम्हारी जय हो। तुम भीमसेन, अर्जुन और गरुडके गर्वको हरनेवाले तथा अर्जुनके रथकी पताकापर बैठकर उसकी रक्षा करनेवाले हो। तुम भीष्मपितामह, द्रोणाचार्य और कर्ण आदिसे रक्षित कालकी दृष्टिके समान भयानक, दुर्योधनकी महान् सेनाका नाश करनेमे मुख्य कारण हो ॥ ३॥ तुम्हारी जय हो! 'तुम सुग्रीवके गये हुए राज्यको फिरसे दिलानेवाले, संसारके संकटोंका नाश करनेवाले और दानवोंके दर्पको चूर्ण करनेवाले हो। तुम अतिवृष्टि, अनावृष्टि, टीडी, चूहे, पक्षी और राज्यके आक्रमणरूप खेतीमें बाधक छः प्रकारकी ईति, महाभय, ग्रह, प्रेत, चोर, अग्निकाण्ड, रोग, बाधा और महामारी आदि क्लेशोंके नाश करनेवाले हो ॥ ४॥ तुम्हारी जय हो। तुम वेद, शास्त्र और व्याकरणपर भाष्य लिखनेवाले और काव्यके कौतुक तथा करोड़ो कलाओंके समुद्र हो । तुम सामवेदका गान करनेवाले, भक्तोंकी कामना पूर्ण करनेवाले साक्षात् शिवरूप हो और श्रीरामके प्यारे प्रेमी बन्धु हो ॥५॥ तुम्हारी जयहो। तुम सूर्यसे जले हुए सम्पातीनामक ( जटायुके भाई ) गृध्रको नये पंख, नेत्र और दिव्य शरीरके देनेवाले हो और कलिकालके पाप- सन्तापोंसे पूर्ण इस शरणागत तुलसीदासके माता-पिता हो ॥६॥ [२९ ] जयति निर्भरानंद-संदोह कपि-केसरी केसरी-सुवनभुवनैकभर्ता। दिव्यभूम्यंजना-मंजुलाकर-मणे, भक्त-संतापचिंतापहा ॥१॥