पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली.djvu/१३८

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मनोहर शांति का शब्द जो मनुष्य जाति को कभी सुनाई पड़ा है, वह धर्म की भूमि के लोगों के मुँह से सुनाई पड़ा है; और अत्यंत कटु वाक्य भी यदि कभी मनुष्य जाति के सुनने में आया होगा, तो वह भी धार्मिक लोगों ही के मुँह से सुनाई पड़ा होगा। किसी धर्म के आशय जितने ही ऊँचे हैं, जितने ही सूक्ष्म उसके संविधान हैं, उतने ही अधिक अपूर्व उसके व्यव- साय भी होते हैं। मनुष्य के किसी और उद्देश से संसार में उतना रक्तप्रवाह नहीं हुआ है, जितना कि धर्म से हुआ है। पर साथ ही इतने चिकित्सालय, धर्मशालाएँ और अनाथालय आदि भी और उद्देशों के कारण नहीं खुले होंगे। मनुष्य के किसी और भाव से, मनुष्य की तो बात क्या है, जीव जंतु तक की रक्षा का भी उतना काम कभी न हुआ होगा जितना धर्म से हुआ है। धर्म से बढ़कर न कोई क्रूर बना सकता है और न दयालु। ऐसा प्राचीन काल से होता आया है और संभवतः भविष्यत् में भी ऐसा ही होता जायगा। फिर भी धर्म और संप्रदायवालों के इस कलकल कोलाहल, इस मारकाट, इस लड़ाई-झगड़े, इस ईर्ष्या और घृणा में समय समय पर एक प्रबल शब्द उन सबको बाता हुआ होता आया है जो एक छोर से दूसरे छोर तक सुनाई पड़ता है कि शांति धारण करो, समता का अवलंबन करो। क्या यह शब्द सदा आता रहेगा?

क्या यह संभव है कि इस पृथ्वी पर जहाँ घोर धार्मिक युद्ध मचा हुआ है, कभी अविछिन्न शांति का प्रसार हो,