पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली.djvu/१४

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तो अपनी आँखें अपने हाथों मूँँद रखी हैं और चिल्ला रहे हैं कि अँधेरा है। जानो कि कहीं अँधेरा नहीं है। हाथ हटाओ, देखो कैसा प्रकाश है। यह प्रकाश पहले से था। कहीं अंधकार नहीं था, कहीं निर्बलता नहीं थी। हम मुर्ख हैं जो यह चिल्ला रहे हैं कि हम निर्बल हैं। हम मूर्ख हैं जो यह चिल्ला रहे हैं कि हम अशुद्ध हैं। वेदांत न केवल बलपूर्वक यह कहता है कि आदर्श कर्मण्यता की वस्तु है, अपितु यह भी कहता है कि यह सदा से था और यह आदर्श―यह सत्य-हमारा स्वरूप है। इसके अतिरिक्त जो कुछ आप देखते हैं, मिथ्या है, असत्य है । ज्यों ही आपके मुँँह से यह निकलता है कि मैं मरणधर्मा हूँ, आप असत्य कहते हैं। आप अपने आपसे झूठ कह रहे हैं, अपने को नीच, निर्बल और दीन बना रहे हैं।

यह किसी को पाप नहीं मानता; यह किसी को भूल नहीं समझता। वेदांत का कथन है कि सबसे बड़ी भूल है अपने को निर्बल कहना, अपने को पापी समझना, अपने को हीन जानना, यह कहना कि हममें शक्ति नहीं है, हम यह या वह काम नहीं कर सकते हैं। जितनी बार आप ऐसा ध्यान करते हैं, आप अपनी आँख पर एक एक आवरण और चढ़ाते जाते हैं, अपनी आत्मा पर मोहोन्माद की तह पर तह और बढ़ाते जाते हैं। अतः जो यह विचारता है कि मैं निर्बल हूँ, भूल करता है। जो यह विचारता है कि मैं भूल कर रहा हूँ वह संसार में बुरे विचारों का प्रचार कर रहा है। यह अच्छी तरह ध्यान