पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली.djvu/१७३

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है कि वह वैसा नहीं है, अपरिमित है। अब तक हम उसको परिमित ही समझते थे। फूल भी तो वैसे ही परिमित पदार्थ माना जाता था।

यही दशा हमारे सारे विचारों और अनुभवों की है, चाहे वे भौतिक हों या आध्यात्मिक। पहले जब हम जाँच आरंभ करते हैं, तब वे हमें छोटे और तुच्छ जान पड़ते हैं; पर कुछ ही दूर चलकर वे हाथ से फिसलकर अनंतता के गढ़े में कूद पड़ते हैं। और सबसे बृहत् और सबसे पहला पदार्थ जो देखा गया है, वह हम हैं। हम भी अपनी सत्ता के विषय में उसी धोखे में पड़े हैं। हम हैं; हम देखते हैं कि हम एक तुच्छ सत्व हैं। हम जनमते हैं और मरते हैं। हमारा विषय बहुत संकुचित है। हम यहाँ परिमित हैं और चारों ओर विश्व से घिरे हुए हैं। प्रकृति एक क्षण में हमारा ध्वंस कर सकती है। हमारा शरीर ऐसा है कि एक क्षण भर में छिन्न भिन्न हो सकता है। हम इसे जानते हैं। कर्मभूमि में हम कैसे क्षीणबल हैं। हमारी इच्छा का क्षण क्षण अवरोध होता रहता है। हम कितने कामों को करने की इच्छा करते हैं, पर उनमें इने गिने ही कर पाते हैं। हमारी इच्छा का कहीं अंत नहीं है। हम सब कुछ चाह सकते हैं; हमें सबकी इच्छा है; हम 'शुन' नक्षत्र तक जाने की इच्छा कर सकते हैं। पर हमारी इच्छाएँ कितनी कम पूरी होती हैं। हमारा शरीर स्थायी नहीं कि वे पूरी हो सकें; प्रकृति हमारी इच्छा की पूर्ति के प्रतिकूल है। हम निर्बल हैं। जो बात