पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली.djvu/२११

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
[ २०३ ]
(२६) आत्मा और परमात्मा।
(हार्टफोर्ड, अमेरिका)

प्राचीन काल से, शताब्दियों से यह शब्द सुनाई दे रहा है; हिमालय के ऋषि और वानप्रस्थ लोग यही पुकार रहे हैं; यही बातें सेमिटिक लोग पुकार पुकारकर कह रहे हैं; यही उपदेश बुद्धदेव और अन्य धर्मोपदेष्टा गला फाड़ फाड़कर दे रहे हैं; यही ध्वनि उन लोगों के मुँह से निकल रही है जिन लोनों ने पृथ्वी के आदि में प्रकाश को देखा है, उस प्रकाश को जो मनुष्य के साथ जहाँ जहाँ वह जाता है, चलता है और सदा उसके साथ साथ रहता है। वह शब्द हमारे पास आ रहा है। वह शब्द उन छोटे छोटे सोतों की नाई है जो पर्वतों पर से निकलते हैं। कहीं वे गुप्त होते हुए और कहीं प्रकट होते हुए अंत को मिलकर एक प्रचंड बलवती नदी का रूप धर लेते हैं। ये संदेश सारी जातियों और संप्रदायों के महात्मा स्त्री-पुरुषों के मुँह से निकल रहे हैं और मिलकर हमसे डंके की चोट पूर्व काल से यह पुकार पुकारकर कहते आ रहे हैं। वह पहला शब्द जो इनकी ध्वनि से निकलता है, यही है कि सब धर्मों के लिये और तुम्हारे लिये शांति हो। यह विरोध की बात नहीं है, अपितु धर्म की एकता का शब्द है। हमें पहले इसका अर्थ समझना चाहिए। इस शताब्दी के आदि में लोगों को भय था कि अब धर्म का अंत हो जायगा। वैज्ञानिक अन्वेषणों के हथौड़े के नीचे पुराना