पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली.djvu/२२६

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करके प्रकट कीं। किसी पुस्तक ने आत्मा को उत्पन्न नहीं किया। हमें यह भूल न जाना चाहिए। सभी धर्मों का परिणाम वा अंत ईश्वर को आत्मा में साक्षात् मात्र करना है। यही एक विश्वव्यापी धर्म है। यदि कोई सत्य सारे धर्मों में है, तो मैं कह सकता हूँ कि वह ईश्वर का साक्षात्कार मात्र है। भाव और रीतियों में भेद भले ही हो, पर सब में व्यापक भाव वही है। सहस्रों भिन्न भिन्न व्यासार्ध वा त्रिज्याएँ भले ही हों, पर सब एक ही केंद्र पर मिलती हैं और यही ईश्वर का साक्षात्कार है। वही जो इस इंद्रिय के जगत् के परे, इस नित्य के खाने पीने तथा व्यर्थ वकवास के जगत् के परे और इस मिथ्या छाया तथा स्वार्थ के जगत् के परे है। वह संसार की सारी पुस्तकों से परे, सारे संप्रदायों से परे, सारे अहंकार से परे है और यही अपने भीतर ईश्वर का साक्षात्कार है। कोई मनुष्य सारे संसार के धर्मों को क्यों न मानता हो, वह सारी पवित्र पुस्तकों की गठरी सिर पर क्यों न लादे चले, वह सारी पवित्र नदियों में स्नान क्यों न कर चुका हो, फिर भी यदि उसे ईश्वर का बोध नहीं है तो मैं उसे घोर नास्तिक मानता हूँ। और कोई मनुष्य जो कभी किसी गिरजा वा मंदिर में न गया हो, न कोई पूजा- प्रतिष्ठा करता हो, पर यदि वह अपने भीतर ईश्वर का साक्षात् करके इस मिथ्या जगत् से पार पहुँच गया हो तो वही महात्मा, ऋषि, मुनि सब कुछ है। ज्यों ही कोई उठकर यह कहता है कि मैं और मेरा धर्म सच्चा है, दूसरे सब झूठे हैं, वह