पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली.djvu/२५४

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मन संस्कार को आगे ले जाता है और उसे व्यवसायात्मिका शक्ति बुद्धि को दे देता है। वहाँ वेदना उत्पन्न होती है। बुद्धि के परे अहंकार है जिसमें “मैं हूँ” को बोध उत्पन्न होता है। अहंकार से परे महत् है जो प्रकृति का अति सूक्ष्म रूप है। पूर्व पूर्व उत्तरोत्तर के कार्य्य हैं। तालाब में तो बाहर से ही आघात पहुँचते हैं, पर मन में बाह्य और आभ्यंतर दोनों ओर से आघात पहुँचते हैं। महत् के परे मनुष्य की आत्मा है जिसे पुरुष कहते हैं। यह शुद्ध, पूर्ण, निःशंक और द्रष्टा है और ये सब परिवर्तन उसी के लिये हैं।

मनुष्य इन सब परिणामों वा विकारों को देखता है; पर वह अशुद्ध नहीं है और उसमें दोष अध्यास के कारण है। वेदांत में प्रतिबिंब को अध्यास कहते हैं। यह अध्यास वैसे ही है जैसे शुद्ध स्फटिक के सामने रक्त वा नील रंग का फल दिखाया जाय तो उसका प्रतिबिंब स्फटिक में भासमान होगा। हम इसे मान लेते हैं कि कनेक आत्माएँ हैं और सब पूर्ण और शुद्ध हैं। उनके ऊपर वर्ण वर्ण के सूक्ष्म द्रव्यों का आवरण वा आभा पड़ती है और वे नाना वर्ण के जान पड़ने लगते हैं। प्रकृित ऐसा क्यों करती है? प्रकृति इतने रूप केवल आत्मा की उन्नति के लिये धारण कर रही है; सारी सृष्टि श्रात्मा की भलाई के लिये है कि वह मुक्त हो जाय। यह वृहत् पुस्तक जो विश्व कहलाती है, मनुष्य के सामने खुली पड़ी है कि वह उसे पढ़े; और अंत को उसे इसका ज्ञान हो जाता है

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