पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली.djvu/२६२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
[ २४९ ]

प्रकार की है―कमैंद्रिय और ज्ञानेंद्रिय। आँख, कान, नाक आदि

इंद्रियाँ नहीं हैं, बल्कि उनके पट हैं जिन्हें आजकल के लोग मस्तिष्क का केंद्र वा नाड़ी केंद्र कहते हैं। इसी अहंकार के विकार से इंद्रियों वा केंद्रों की सृष्टि होती है। उसी अहंकार का दूसरा एक और विकार है जिसे तन्मात्रा कहते हैं। वे भूत के अत्यंत सूक्ष्म अंश हैं। वे इंद्रिय गोलक में स्पर्श करते हैं और तब हमें विषयों का साक्षात् और ज्ञान होता है। आप उन्हें साक्षात् नहीं कर सकते, पर आपको उनके होने का ज्ञान हो सकता है। इन्हीं तन्मात्राओं से स्थूल भूतों की सृष्टि होती है। वे भूत पृथ्वी, जल इत्यादि हैं, जिनको देख-छू सकते हैं। मैं आपको यह बतला देना चाहता हूँ कि उनका ग्रहण करना अति कठिन है। कारण यह है कि पश्चिम के देशों में मन और भूतों के संबंध में विलक्षण विचार है। उन विचारों को मस्तिष्क से निकालना कठिन है। मुझे भी इसके लिये बड़ी कठिनाई उठानी पड़ी है; क्योंकि मुझे भी पहले पाश्चात्य दर्शन की ही शिक्षा मिली थी। यह सब विश्वविधान की चीजें हैं। इस प्रकृति के विश्वव्यापी प्रसार को देखिए जो अविच्छिन्न, अव्यक्त रूप से सर्वतोव्यक्त थी। वह सवकी पूर्वावस्था है जो उसी प्रकार विकार को प्राप्त होती है जैसे दूध जमकर दही हो जाता है। उस प्रकृति का पहला विकार महत् है। वही महत् स्थूल हो जाता है; फिर उसी को अहंकार कहते हैं। तीसरा विकार इंद्रिय और वे सूक्ष्म तन्मात्राएँ हैं, जिनसे हम