पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली.djvu/३२६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
[ ३१३ ]


है। उसको प्रकट करने के लिये दूसरा कोई उपाय नहीं है। जहाँ कहीं निर्बलता के विचार मिलें, वहाँ पाँव न रखो। यदि ज्ञानी होना चाहते हो तो सब प्रकार की निर्बलता त्याग दो।

अभ्यास आरंभ करने के पहले अपने मन को सारी शंकाओं से साफ कर लो। वादविवाद, तर्क और युक्ति को त्याग दो और जब अपने मन में यह निश्चय कर लो कि यही सत्य है दूसरा नहीं, तब विशेष तर्क न करो, अपना मुँह बंद कर लो। न तर्क-वितर्क करो न उसे सुनो। अधिक तर्क से काम क्या? तुम ने निश्चय कर लिया है, अपने प्रश्न का समा- धान कर लिया है। फिर रह क्या गया? अब तो केवल सत्य का साक्षात् कहना रह गया है। व्यर्थ तर्क में समय क्यों खोते हो? अब तो सत्य का निदध्यासन करना है। सारे विचार जो आपके पोषक हों, उन्हें ग्रहण कीजिए और जो विरोधी हों, उन्हें त्याग दीजिए। भक्त मूर्तियों, प्रतीक और ईश्वर का ध्यान करते हैं। यह सहज मार्ग है, पर धीमा है। योगी शरीर के भिन्न भिन्न चक्रों का ध्यान करता है और अपने मन में शक्तियों का संपादन करता है। ज्ञानी कहता है कि मन तो है ही नहीं, और न शरीर ही है। शरीर और मन के इस भाव को जाने देना चाहिए, निकाल देना चाहिए। वह सबका निषेध करता है; और जो बच रहता है, वही आत्मा है। यही विश्लेषण का ढंग है। ज्ञानी चाहता है कि विश्व को विश्लेषण द्वारा आत्मा से