पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली.djvu/३७

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निदान बेचारी माता ने कहा―‘पुत्र,मैं तेरे गोत्र को नहीं जानती। मैं यौवनावस्था में दासी कर्म करती थी और मैंने बहुतों के यहाँ काम किया। मैं यह नहीं जानती कि तेरा कौन पिता है; मेरा नाम जबला है और तेरा नाम सत्यकाम।” छोटा बालक आचार्य्य के पास गया और उपनयन करने के लिये प्रार्थना की। आचार्य्य ने उसके पिता और गोत्र का नाम पूछा। लड़के ने वही सब जो अपनी माता से सुना था, ज्यों का त्यों कह सुनाया। आचार्य्य ने सुनकर कहा―‘ब्राह्मण को छोड़ इतना खरा सत्य कोई कह ही नहीं सकता। तू ब्राह्मण है और मैं तुझे वेदारंभ कराऊँगा। तू सत्य कहने में रुका नहीं।’ उसने बालक को अपने आश्रम में ले लिया और उसे अध्ययन कराने लगा।

अब आगे प्राचीन काल की प्रचलित शिक्षा की अद्भुत प्रणाली आती है। आचार्य्य सत्यकाम को चार सौ दुवली और निर्बल गौएँ चराने को देकर जंगल में भेजता है। वहाँ जाकर वह कुछ काल तक रहा। आचार्य्य ने उससे कहा था कि उस समय आना जब गौत्रों की संख्या एक सहस्त्र हो जाय। कई वर्ष बीतने पर सत्यकाम ने एक दिन गोष्ठी के एक बड़े वृषभ के शब्द को सुना। उसने उससे कहा―“अब हमारी संख्या एक सहस्त्र को पहुँच गई; हमें आचार्य के पास ले चलो। मैं तुमको ब्रह्म-ज्ञान की कुछ शिक्षा दूँँगा।” सत्यकाम ने कहा― ‘बहुत अच्छा महाराज, शिक्षा दीजिए।’ वृषभ बोला―‘ब्रह्म का एक भाग पूर्व है, एक पश्चिम, एक दक्षिण और एक उत्तर।