पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली.djvu/४८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
[ ४२ ]

वहाँ नहीं रहते और केवल अच्छापन और सुख रह जाता है। पर मनुष्य उसे कैसा ही सुखमय क्यों न समझता हो, सत्य और वस्तु है और सुख और है। ऐसे भी उदाहरण मिले हैं जहाँ सत्य जब तक अपनी उच्च दशा को नहीं पहुँचता है, सुखकर नहीं होता। मनुष्य का स्वभाव बहुत ही प्राचीनत्व- अनुरागी होता है। वह कुछ करता है और उसे करके उसी में पड़ा रहता है और उसका निकलना कठिन हो जाता है। उसके मन में नए विचारों के लिये जगह नहीं है क्योंकि उनके आने से उसे कष्ट होता है।

उपनिषदों में देख पड़ता है कि उन नए विचारों से निकलने के लिये कितनी दौड़धूप की गई है। यह कहा गया है कि वह स्वर्ग जिसमें मनुष्य अपने पितरों के साथ रहता है, चिरस्थायी नहीं हो सकता; क्योंकि यह देखा जाता है कि जिनके नाम-रूप है, वे सब नाशमान हैं। यदि स्वर्ग के रूप हैं तो उनका कभी न कभी नाश अवश्य होगा। वे करोड़ों वर्ष क्यों न बने रहें, पर एक समय आवेगा जब उनका नाश होना ध्रुव है। इस विचार के साथ ही यह भी विचार उदय हुआ कि जीवात्मा को पृथ्वी पर अवश्य लौटना पड़ता है। स्वर्ग वह स्थान है जहाँ लोग अपने पुण्यकर्मों के फल-भोग के लिये जाते हैं और भोग करके इसी पृथ्वी पर लौट आते हैं। यह बात इससे स्पष्ट प्रतीत होती है कि उस समय में भी मनुष्यों में परिणामवाद वा हेतुवाद का उदय हो गया था। आगे चलकर यह देख पड़ता