पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली.djvu/८०

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सापेक्ष सत्य में हमें सत्य की अपेक्षा कहीं अधिक अभ्यास की आवश्यकता है। यही हमारा जीवन है।

वेदांत के सिद्धांत में यह विशेषता है कि यह सारे धार्मिक सिद्धांतों से जिनका हमें बोध है, कहीं युक्तियक्त है। फिर भी वेदांत में यह महत्व है कि उसमें ईश्वर के सभी एकदेशी विचार आ जाते हैं जिनकी बहुतों को आवश्यकता है। कुछ लोग कहते हैं कि यह व्यक्तिगत व्याख्या अयुक्त है। पर इससे संतोष तो होता है। लोगों को संतोष देनेवाले धर्म की आवश्यकता है; और हमारी समझ में यही उनके लिये आवश्यक है। अतः यह आवश्यक है कि शांंतिप्रद धर्म बना रहे। इससे बहुतों को अच्छे बनने में सहायता मिलती है। छोटे लोग जिनके ज्ञान अल्प हैं और जिन्हें अपने सुधार की बहुत कम बातों की आव- श्यकता है, बहुत ऊँचे विचारों के लिये कष्ट नहीं करते। उनके विचार उनके लिये बहुत अच्छे और उपयोगी हैं। पर आपको अपौरुषेय (व्यापक) को समझना चाहिए; कारण यह है कि उसके समझने से और सब समझ में आ सकते हैं। उदाहरण के लिये पुरुषविशेष ईश्वर के भाव को ही ले लीजिए। वह मनुष्य जो अपुरुष-विधि को समझता है और जानता है― जैसे जॉन स्टुअर्ट मिल―कह सकता है कि पुरुषविध ईश्वर नहीं हो सकता, उसकी सिद्धि नहीं हो सकती। मैं उसकी इस बात को मानता हूँ कि पुरुष-विध ईश्वर की सिद्धि नहीं हो सकती। पर वही अपुरुष-विधि का सर्वोच्च प्रकारांतर मात्र है