पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली.djvu/८२

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सार है वही अपुरुष विध ईश्वर है और उसे रूप और भाव हमने अपनी बुद्धि से दे रखा है। इस मेज में जो सार है, वह वही सत्ता है; और मेज के रूप की और अन्य रूपों की कल्पना हमारी बुद्धि की की हुई है।

अब उदाहरण के लिये गति को लीजिए। विकार का यही मुख्य लिंग है। हम इसकी उस विश्वव्यापक के लिये कल्पना नहीं कर सकते। विश्व में जितने अंश हैं, उनका एक एक अणु सतत परिवर्तित हो रहा है, परिणाम को प्राप्त हो रहा है, गति कर रहा है। पर समूचा विश्व समष्टि के रूप में निर्विकार है। कारण यह है कि गति का विकार सापेक्ष है, निरपेक्ष नहीं। हमें किसी की गति का बोध कब होता है? तभी न जब हम उसकी किसी ऐसे पदार्थ से तुलना करते हैं जो गतिशील नहीं होता। गति को समझने के लिये दो पदार्थों की आवश्य- कता है। सारा विश्व समष्टि रूप से ध्रुव है; उसमें गति नहीं है। यह तो विचारिए कि वह किसकी अपेक्षा गति करेगा। इसमें परिवर्तन है, यह तो कहा ही नहीं जा सकता। यदि कहोगे तो किस की अपेक्षा से कहोगे? अतः सब शाश्वत है और उसके भीतर प्रत्येक परमाणु परिणामशील है। यह एक ही साथ परिणामी और अपरिणामी दोनों है। विकारी भी है निर्विकार भी, अपुरुषविध और पुरुषविध, एकदेशी और सार्वदेशी सब है। हमारी यहो धारणा विश्व के संबंध में, यही गति के संबंध में और यही ईश्वर के संबंध में है।