पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली खंड 3.djvu/१०१

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कर्मयोग
 

कितने दुष्ट हैं जो चुपचाप मेरे पास नहीं चले आते, जिससे मैं उन्हें अपना भोजन बना सकूँ,; वे तेरे नियमों को तोड़ रहे हैं।" यदि संसार हमारे लिये है, तो हम भी संसार के लिये हैं। संसार हमारे सुख के लिये बना है, यह विचार हमारी उन्नति का सबसे अधिक बाधक है। संसार हमारे लिये नहीं ; लाखों प्रतिवर्ष इसमें आते हैं और चले जाते हैं ; संसार को इसके लिये सुख-दुख नहीं होता। जितना संसार हमारे लिये है, उतना हम भी संसार के लिये हैं।

उचित रीति से कर्म करने के लिये अत: तुम्हें पहले अपने आसक्ति के विचारों को छोड़ना होगा। दूसरे संघर्ष में घुल-मिल न जाओ, वरन् साक्षी बनकर कर्म करो। मेरे गुरु कहा करते थे,-"अपने बच्चों की तरफ ऐसे देखो जैसे धाय देखती है।" धाय तुम्हारे बच्चे को ऐसे पुचकारे, खिलाये और प्यार करेगी जैसे वह उसी का बच्चा हो; परन्तु तुमसे जवाब मिलते ही वह अपना बोरिया-बंधन समेट घर जाने को तैयार हो जायगी। आसक्ति की बातें भूल जाती हैं ; साधारण धाय को तुम्हारे बच्चे छोड़ दूसरे के बच्चों को खिलाते तनिक भी दुख न होगा। इसी भाँति तुम जिन्हें अपना कहते हो, उनके प्रति तुम्हारा ऐसा व्यवहार होना चाहिये । तुम धाय हो और यदि ईश्वर में विश्वास करते हो तो समझो, जो कुछ भी तुम्हारा है, वह ईश्वर का है। सबसे बड़ी निर्बलता बहुधा पहले भलाई और सबलता का रूप धारण कर आती है। यह सोचना निर्बलता है कि मेरा कोई आश्रित है तथा