पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली खंड 3.djvu/१२

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कर्मयोग
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है,--यह अमर सिद्धांत है। शायद हम कभी सोच कि वह सच नहीं पर अंततोगत्वा हमें उसकी सचाई स्वीकार ही करनी पड़ती है। मनुष्य जीवन भर समृद्ध होने के लिये हाथ-पैर पटका करे, हज़ारों को धोखा दे परंतु अंत में उसे मालूम होता है कि वह समृद्ध होने के योग्य न था और तब उसका जीवन उसके लिये भार हो जाता है। सांसारिक भोग की वस्तुएँ हम एकत्र करते जायँ, परंतु हमारे पास रहता वही है जिसे हमने सचमुच कमाया होता है। मूर्ख संसार भर की पुस्तकें खरीदकर अपने पुस्तकालय में रख सकता है लेकिन उनमें से वह पढ़ उन्हीं को सकेगा जिन्हें पढ़ने की उसमें योग्यता होगी। और यह योग्यता कर्म से उत्पन्न होती है। हमारी योग्यता, हमारी ग्राह्य शक्ति हमारे कर्म के अनुरूप होती है। हम जो कुछ हैं, उसके लिये हम उत्तरदायी हैं। हम जो कुछ भी होना चाहें, वह हो सकने की शक्ति हम में है। यदि हमारा वर्तमान रूप हमारे पूर्व कर्मों का परिणाम है, तो निश्चय ही अपने आज के कर्मो द्वारा हम अपना अभीप्सित भावी रूप भी बना सकते हैं। इसलिये हमें कर्म करना सीखना है। आप कहेंगे--"कर्म करना सीखने से क्या लाभ? संसार में किसी-न-किसी ढंग से सभी कर्म करते हैं। परंतु शक्ति का अपव्यय भी किया जा सकता है। कर्मयोग के संबंध में गीता में यह कहा गया है कि कर्म को चतुरता से, एक विज्ञान की भाँति करने पर, कर्म कैसे किया जाय, यह सीख लेने पर ही, उत्तम फल मिल सकता है। आपको