पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली खंड 3.djvu/१२४

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कर्मयोग
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कर्तव्य बंधन नहीं। जब विवाह होता है, तब पति-पत्नी आसक्ति के कारण एकसाथ रहते हैं; इस प्रकार का एकसाथ रहना कई पीढ़ियों के बाद रूढ़ि-बद्ध हो जाता है; और तब वह कर्तव्य का रूप धारण कर लेता है। एक प्रकार का यह असाध्य रोग है ; जब वह क्लेश देता है, हम उसे रोग कहते हैं, जब असाध्य हो जाता है तो प्रकृति। परंतु है वह रोग। जब आसक्ति असाध्य हो जाती है, हम उसका कर्त्तव्य के श्रुतिमधुर शब्द द्वारा नामकरण करते हैं। हम उसके ऊपर पुष्पवर्षा करते हैं, उसके चारों ओर नारे बजाते हैं, बड़े-बड़े शान और धर्म- अन्यों का पाठ होता है और फिर सारा संसार आपस में कटने मरने लगता है, मनुष्य यथाशक्ति इस कर्तव्य का पालन करते हुये एक दूसरे का जीवन-धन अपहरण करते हैं। कर्तव्य वहाँ तक अच्छा है जहाँ तक वह पाशविकता का शमन करता है। क्षुद्रतम प्राणियों को जिनके लिये अन्य उच्च आदर्श की कल्पना करना असंभव है, कर्तव्य ही शुभ मंत्र है; परंतु जो कर्मयोगी होना चाहते हैं, उन्हें इस काव्य के विचार को भी पीछे छोड़ना पड़ेगा। हमारे तुम्हारे लिये कोई कर्त्तव्य नहीं। तुम्हें संसार को जो देना हो, अवश्य दो परंतु कर्त्तव्य-पालन के विचार से नहीं। उसको ध्यान में न लाओ। किसी से बलात् प्रेरित न हो। तुम क्यों किसी का दबाव मानो? बाह्य प्रेरणा से जो कर्म भी किया जाता है, आसक्ति उत्पन्न करनेवाला होता है। तुम्हारे लिये कोई कर्त्तव्य क्यों हो? ईश्वर को सब कुछ अर्पण