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कर्मयोग
 

स्वभाव से शक्ति-संपन्न, कर्म्मठ और चैतन्य होता है; और किसी के स्वभाव में मधुरता, शांति तथा उद्यम और अनुद्दम शीलता का उचित सांमजस्य रहता है! इस भाँति प्राणिमात्र में, पशु, पौधों और मनुष्य में इन गुणों का न्यूनाधिक एक नैसर्गिक विकास दिखाई देता है।

कर्मयोग में प्रकृति के इन तीन तत्त्वों अथवा गुणों पर विशेष विचार करना होता है। वे क्या हैं और हम उनका कैसे प्रयोग कर सकते हैं, यह सिखाकर वह हमें अपने काम सुचारु ढंग से करना बताता है। मानव-समाज विभिन्न श्रेणियों से बनी है। इन सब कर्तव्य और धर्म के विषय में जानते हैं परंतु साथ ही हम देखते हैं कि विभिन्न देशों में धर्म और कर्तव्य के अर्थ भिन्न-भिन्न होते हैं। एक देश का धर्म दूसरे के लिये अधर्म होता है। उदाहरण के लिये एक देश में चचेरे भाई-बहन ब्याह कर लेते हैं, दूसरे में ऐसा करना घोर अधर्म समझा जाता है। एक देश में बड़े भाई की स्त्री से विवाह करना उचित है, दूसरे में अनुचित; एक देश में पुरुष केवल एक विवाह कर सकता है, दूसरे में अनेक,-- इसी भाँति और भी। धर्म के और-और अंगों में इसी प्रकार का आदर्श-भेद पाया जाता है। फिर भी हमारे भीतर यह विचार होता है कि धर्म का एक सार्वदेशिक आदर्श होना चाहिये।

इसी भाँति जीवन के नित्यप्रति के आचरणों में भिन्न जातियों में कर्तव्य के भिन्न आदर्श हैं। एक देश में कुछ निर्धारित काम न करने से कर्तव्यच्युति समझी जायगी; दूसरे में उन्हें