पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली खंड 3.djvu/२२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
कर्मयोग
२५
 

करने पर दोष माना जायगा; और फिर भी हम जानते हैं कि आचरण का एक सार्वदेशिक आदर्श होना चाहिये। इसी प्रकार समाज को एक श्रेणी के लिये कुछ बातें उसके धर्म में सम्मिलित हैं, दूसरी श्रेणी के लिये उनका विचार भी पाप है और उसके लिये वे सर्वथा त्याज्य हैं। हमारे सामने दो मार्ग हैं,--एक अज्ञानियों का, जो अपने आपको छोड़ सारी दुनिया को गलत रास्ते पर चलता देखते हैं; दूसरा बुद्धिमानों का, जो यह मानते हैं कि हमारे मानसिक विकास के अनुकूल तथा जीवन की विभिन्न श्रेणियों के अनुरूप धर्म तथा आचरण की विभिन्नता सम्भव है। इसलिये जानना यह है कि जीवन की एक सतह पर, किन्ही परिस्थितियों में मनुष्य का जो धर्म है वह अन्य में न होगा और न हो सकता है।

एक उदाहरण से अर्थ स्पष्ट हो जायगा। संसार के सभी महापुरुषों ने कहा है--"पाप का प्रतिकार न करो,"-–अहिंसा मनुष्य का परम धर्म है। हम सब यह जानते हैं, परन्तु इस देश का प्रत्येक निवासी यदि उस सिद्धान्त को अपने-अपने जीवन में पूर्ण रूप से कार्य-रूप में लाने लगे, तो समाज नष्ट-भ्रष्ट हो जाये; पापी और दुराचारी हमारे धन और जीवन के स्वामी हो जायँ तथा जो चाहें हमारा कर डालें। एक दिन के लिये भी यदि यह अहिंसा कार्य-रूप में लाई जाय तो समाज की श्रृंखलाएँ विच्छिन्न हो जायें। फिर भी स्वभावतः अपने हृदय में हम इस उपदेश की सचाई का अनुभव करते हैं--"पाप का प्रतिकार न