पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली खंड 3.djvu/२६

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कर्मयोग
२९
 

रहा था। उसने पूछा, भगवान् के दर्शन कैसे हों, वैकुण्ठ कैसे मिले? मैंने पूछा--"तुम झूठ बोल सकते हो?" उसने कहा-- "नहीं।" "तब तुम पहले झूठ बोलना सीखो। लट्ठ के लट्ठ रहने से झूठ बोलना भी अच्छा है। तुमसे काम-धाम कुछ नहीं होता, उस दशा को तो पहुँचे नहीं हो जहाँ कर्म होता नहीं, केवल शांति ही शांति रहती है। तुम इतने बुद्धू हो कि तुमसे कोई बुरा काम भी नहीं हो सकता।" यह एक असाधारण मामला था और मैं उससे हँसी कर रहा था परन्तु मेरा तात्पर्य यह था कि मनुष्य को आदर्श शांति पाने के लिये क्रियाशील होना चाहिये।

अकर्मण्यता से सदा दूर रहना चाहिये। कर्मण्यता का अर्थ है प्रतिकार। स्थूल सूक्ष्म सभी बुराइयों का प्रतिकार करो! जब तुम उन्हें रोक सकोगे तभी तुम्हें शांति मिलेगी। यह कहना अत्यंत सरल है, "किसी से घृणा न करो, बुराई का बदला बुराई से न दो", परन्तु हम जानते हैं, साधारण आचरण में इन बातों का कितना महत्त्व होता है। जब लोगों की दृष्टि हम पर होती है तब हम भले ही अहिंसावादी बन जायँ परंतु हृदय में वह हमें खलता है। अहिंसा की शांति के अभाव का हमें अनुभव होता है; हम सोचते हैं, हिंसा का उत्तर हिंसा से देते तो अच्छा था। यदि तुम्हें धन की चाह है और साथ ही यह भी जानते हो कि सारे संसार की दृष्टि में धन कमाना घोर पाप है, तो धन कमाने में सारी शक्तियाँ लगा देने का तुममें साहस न होगा, यद्यपि दिन- रात तुम्हें उसी का ध्यान रहेगा। यह सरासर धोखेबाज़ी है और