पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली खंड 3.djvu/३३

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कर्मयोग
 

अच्छे कामों के लिये और अच्छे तरीक़ों से धन कमाकर गृहस्थ मोक्ष के लिये प्रायः वही करता है जो अपनी निर्जन कुटी में बैठा उपासनापर संन्यासी करता है। ईश्वर और उसकी बनाई वस्तुओं के प्रति श्रद्धा से उत्पन्न निःस्वार्थ आत्म-त्याग के आदर्श के ही वे दोनों दो भिन्न रूप प्रकट करते हैं।

"सभी तरह से उसे सुन्दर कीर्ति कमाने की चेष्टा करनी चाहिये; और निम्न बातें उसे तजनी चाहिये,--उसे जुआ न खेलना चाहिये, लुच्चों के साथ घूमना न चाहिये, झूठ न बोलना चाहिये और दूसरों के दुख का कारण न बनना चाहिये।"

वहुधा लोग ऐसे काम मुड़िया लेते हैं जो उनके वश के बाहर होते हैं। परिणाम यह होता है कि अपनी लक्ष्य-सिद्धि के लिये वे दूसरों को धोखा देते हैं। फिर सभी बातों में समय का भी ध्यान रखना होता है; एक समय जहाँ विफलता मिली है, सम्भव है, दूसरे समय वहीं सफलता मिले।

"गृहस्थ को सत्य और नम्रता के साथ बोलना चाहिये; वह ऐसे शब्दों का प्रयोग करे जो औरों को रुचें, जिनसे उनका भला हो। न उसे दूसरों के विषय में बातें करनी चाहिये न अपने धन की वड़ाई मारनी चाहिये।

"गृहस्थ पौसरे और ताल खुदवाकर, मार्ग के दोनों ओर वृक्ष लगवाकर, पशु और मनुष्य के लिये दानशालायें बनवाकर उसी लक्ष्य की ओर चलता है जिस ओर बड़े-से-बड़ा योगी चलता है।"