पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली खंड 3.djvu/३४

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कर्मयोग
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कर्म-योग सिद्धांत का यह एक भाग है,--गृहस्थ के कर्तव्य। आगे कहा गया है कि "यदि गृहस्थ अपने देश अथवा धर्म के लिये समर-भूमि में प्राण देता है, तो उसी लक्ष्य पर पहुँचता है जहाँ योगो ध्यान से पहुँचता है।" इससे तात्पर्य यह कि एक का धर्म दूसरे का धर्म नहीं। साथ ही यह भी नहीं कहा गया कि यह धर्म ओछा है और दूसरा बड़ा। अपने स्थान में प्रत्येक धर्म श्रेयस्कर है; अपनी परिस्थितियों के अनुसार हमें अपने धर्म का पालन करना चाहिये।

इस सबके भीतर से एक विचार स्पष्ट निकलता है, सभी प्रकार को निर्बलता वर्ज्य है। हमारे शास्त्रों में, कर्म, धर्म अथवा दर्शन में, इस एक विचार का, जो मुझे प्रिय है, विशेष प्रतिपादन है। वेदों में निर्भय शब्द को आप बार-बार पायेंगे,--किसी से भी भय न करो। भय निर्बलता का चिन्ह है। संसार की निन्दा- असूबा की ओर बिना दृक्पात किये मनुष्य को अपना कर्तव्य करना चाहिये।

यदि संसार छोड़कर मनुष्य उसके बाहर ईश्वरोपासन करने जाय, तो उसे यह न सोचना चाहिये कि पीछे जो संसार में रहकर दूसरों की भलाई के लिये कार्य कर रहे हैं, ईश्वर की उपासना नहीं करते। न जो संसार में स्त्री-बच्चों के लिये जीवन व्यतीत करते हैं, उन सबको जो संसार छोड़ते हैं लफंगा समझना चाहिये। अपनी-अपनी जगह सब बड़े हैं। इसका मैं एक उदाहरण देता हूँ।