पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली खंड 3.djvu/३५

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कर्मयोग
 


एक राजा सभी साधु-संन्यासियों से, जो उसके देश आते, पूछता,--"इन दो में से कौन बड़ा है, वह जो संसार छोड़कर संन्यासी हो जाता है अथवा वह जो संसार में रहते हुये गृहस्थ- धर्म का पालन करता है?" बहुत-से बुद्धिमानों ने इस प्रश्न का उत्तर लगाना चाहा। कुछ ने कहा कि संन्यासी बड़ा है किन्तु जब राजा के पूछने पर वह उसे सिद्ध न कर सके तो उसने उन्हें विवाह कर गृहस्थ हो जाने की आज्ञा दी। और लोग आये; उन्होंने कहा,--"गृहस्थ जो अपने धर्म का पालन करता है, बड़ा है।" उनसे भी राजा ने प्रमाण माँगा और वे जब न दे सके, तो उसने उन्हें गृहस्थ बनकर रहने की आज्ञा दी।

अन्त में वहाँ एक युवा संन्यासी आया; राजा ने उससे भी पूछा। उसने उत्तर दिया--"राजा, अपने-अपने स्थान में दोनों समान बड़े हैं। राजा ने कहा--"इसको सिद्ध करो।" संन्यासी ने कहा--"मैं सिद्ध कर दूँगा परन्तु तुम्हें कुछ दिन जैसे मैं कहूँ रहना होगा, जिससे जो मैं कहता हूँ, उसे आपको सिद्ध कर दिखा सकूँ।" राजा राजी हो गया; संन्यासी के पीछे अपना देश छोड़ और भी कई राज्यों की सीमायें पार करता गया। अन्त में वह एक राज्य में पहुँचा जिसकी राजधानी में एक महोत्सव हो रहा था। राजा और संन्यासो ने तुरही-नक्कारों आदि का शब्द तथा चारणों को पुकारते भी सुना। लोग सजधज के साथ पौर-मार्गों में घूम रहे थे और वहाँ के राजा की एक घोषणा सुनाई जा रही थी। तमाशा देखने के लिये संन्यासी और राजा भी खड़े हो गये।