होती है तब उसके प्रति कर्तव्याकर्त्तव्य की हमारे भीतर एक नैसर्गिक अथवा शिक्षा से प्रेरित भावना उत्पन्न होती है; इस भावना के आने पर मन उस बात पर विचार करने लगता है। कभी वह सोचता है कि इन परिस्थितियों में ऐसा करना ठीक है, कभी सोचता है नहीं। कर्त्तव्य-संबन्धी साधारण धारणा यह कि कर्तव्य-प्रिय मनुष्य अपने मन की अथवा जैसा कि कहा जाता है, आत्मा की आज्ञा के अनुसार कार्य करता है। परन्तु कर्त्तव्य का निश्चय कैसे होता है? यदि किसी ईसाई के सामने गोमांस का एक टुकड़ा हो और वह अपनी अथवा दूसरे की जीवन-रक्षा के लिये उसका व्यवहार न करे तो वह अवश्य अपनी ओर से एक कर्तव्य-च्युति का बोध करेगा। परन्तु यदि कोई हिन्दू वह गोमांस का टुकड़ा स्वयं खा ले अथवा किसी दूसरे हिन्दू को दे दे, तो उसे भी उतनी ही कर्त्तव्य-च्युति का बोध होगा। हिन्दू की शिक्षा-दीक्षा उसे ऐसा ही सोचने के लिये बाध्य करती हैं। पिछली शताब्दी में हिन्दुस्तान में ठगी का एक प्रसिद्ध पेशा था; किसी मनुष्य को मारकर उसका धन छीन लेना वे अपना कर्तव्य समझते थे। जितने ही अधिक मनुष्यों को वे इस भाँति मारते, वे समझते कि धर्म का उन्होंने उतना ही अधिक पालन किया। साधारणतः कोई व्यक्ति जाकर यदि सड़क पर दूसरे को मार डाले, तो वह उसके लिये दुखी होगा और समझेगा, उसने अपना कर्तव्य न किया। परन्तु वही व्यक्ति यदि अपनी सेना की सैनिक पंक्ति में खड़ा दस-बीस-पचास शत्रुओं को मार डाले, तो वह
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