पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली खंड 3.djvu/९४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
कर्मयोग
६७
 

हमारे जीवन मात्र से अन्य जीवन संकुचित होते हैं। भगवद्गीता का ऐसा ही कहना है । चाहे मनुप्य हो, चाहे पशु, चाहे क्षुद्र जीवाणु, इनमें से किन्हीं को हटाकर ही हम अपने लिये स्थान बना सकते हैं। जब पाप-पुण्य का यह हिसाब है तो यह स्वतः सिद्ध है कि फर्म में अहिंसात्मक पूर्णता कभी प्राप्त नहीं हो सकती। अनंत काल तक हम कर्म करते रहें परंतु इन भूल- भुलैयों से निकल न पावेंगे। तुम कर्म करते रहो; दिन-रात, साँझ-सबेरे, अविराम विना विश्राम कर्म करते रहो परंतु कर्म-फल में शुभाशुभ के अन्योन्याश्रित संबन्ध का कहीं अंत न होगा।

दूसरी बात सोचने की यह है, कर्म का अंत क्या है ? प्रत्येक देश में हम देखते हैं, ऐसे लोगों को एक बड़ी संख्या होती है, जिनका विश्वास होता है कि एक ऐसा समय आयेगा जब संसार में रोग, शोक, मृत्यु आदि किंचिन्मात्रा में भी कहीं कुछ न होंगे। यह बहुत सुन्दर विचार है, अज्ञानियों को शुभ-कर्म करने के लिये प्रेरित करने को अच्छा बहाना है ; परंतु यदि क्षण भर भी विचार करें, तो हम देखेंगे कि ऐसा हो सकना नितान्त असंभव है। कैसे हो सकता है, जब शुभ और अशुभ एक ही मुद्रा के चित्तपट्ट हैं ? बिना अशुभ के शुभ का अस्तित्व कैसे संभव है ? पूर्णता का क्या अर्थ है ? पूर्ण जीवन विरोधा- भास है। जीवन हमारे और वाह्य प्रकृति के बीच निरंतर संग्राम की दशा का नाम है। प्रत्येक क्षण हम इस युद्ध में लगे रहते हैं ; हारे तो जान से ही हाथ धोना पड़ा। उदाहरण के लिये