पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली खंड 3.djvu/९६

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कर्मयोग
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हैं कि ज्ञान, भक्ति और कर्म-तीनों एक ही ध्येय पर आकर मिलते हैं। अखण्ड अनंत आत्म-त्याग का आदर्श ही सर्वोच्च आदर्श है, जहाँ मैं का नाश हो केवल तू रहता है ; और मनुष्य जाने चाहे न जाने, कर्म द्वारा भी वह वहाँ पहुँचता है। अव्यक्ति- गत ईश्वर के विचार से धर्मोपदेशक घबरा सकता है ; वह व्यक्तिगत ईश्वर की सत्ता पर जोर दे, और अपने व्यक्तित्व, अपनी एकता, जो भी उसका अर्थ हो, को वह इसी भाँति स्थिर रखना चाहे । परंतु उसके धर्माचरण के विचार यदि वे अच्छे हैं, तो अवश्य आत्म-त्याग पर निर्भर होंगे। सभी सदा- चार की यह भित्ति है ; मनुष्य, पशु, देवता, किसी के भी संबंध में हो, आचरण का यही मूलाधार है।

संसार में आपको अनेक कोटि के पुरुष मिलेंगे। पहले वे देव-पुरुष जिनका आत्म-त्याग पूर्ण है, जो जीवन देकर दूसरे का भला ही करेंगे। ये उत्तम कोटि के पुरुष हैं ; यदि ऐसे सौ भी किसी देश में हो तो उसे हताश होने की आवश्यकता नहीं । परन्तु वे अभाग्यवश हैं जो थोड़े हैं। इसके पश्चात्व हुत परोपकार करते हैं किन्तु तभो तक जब तक उनकी स्वार्थहानि नहीं होती । निकृष्ट कोटि के पुरुप वे हैं जो अपना भला और दूसरों का बुरा चाहते हैं। एक संस्कृत कवि के अनुसार चौथी अनाम कोटि के वे हैं जो केवल बुराई के लिये दूसरों का बुरा चेतते हैं। जिस प्रकार एक छोर पर वे देव-पुरुष हैं जो भलाई के लिये ही भलाई करते हैं, दूसरे छोर पर वे हैं जो बुराई के लिये