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और आचार की व्याख्या की गई है, परलोक और अध्यात्म की दृष्टि से नही। दूसरो के प्रति जो आचरण हम करते है उसी मे अच्छे और बुरे का आरोप हो सकता है। ब्यवहारसंबंध से ही क्रमश. सद्सद्विवेक बुद्धि उत्पन्न हुई है। व्यवहारसंबंध जीवननिर्वाह के लिये आवश्यक था। परस्पर मिल कर कार्य करने मे उन बातो की प्राप्ति अधिक सुगम प्रतीत हुई जिनसे सब को समान लाभ था। एक ही पूर्वज से उत्पन्न अनेक परिवार इसी समान हित की भावना से प्रेरित हो कर कुलबद्ध हो कर रहने लगे। एक व्यक्ति के जिस कर्म से सब का जितना हित या अहित होता---अर्थात् सब को जितना सुख या दु.ख प्राप्त होता---उसी हिसाब से उस कर्म की स्तुति या निदा होती। इस प्रकार 'कुल धर्म' की स्थापना हुई। पहले प्रत्येक कुल को दूसरे कुलों से बहुत लड़ाई भिड़ाई करनी पड़ती थी अतः आदिम काल से यह धर्म स्वरक्षार्थ ही था। इस धर्म के द्वारा प्रत्येक व्यक्ति को अपनी स्वार्थवृत्ति और इच्छा पर कुछ अंकुश रखना पड़ता था। यदि प्रत्येक मनुष्य मनमाना कार्य करने लगे, दूसरो का कुछ भी ध्यान न रखे, तो धर्मव्यवस्था और उसके आधार पर स्थित समाज व्यवस्था नही रह सकती। अतः किसी समाज को बद्ध रखते के लिये यह धर्मव्यवस्था आवश्यक है। चौरो और डाकुओ तक के दल मे यह धर्मव्यवस्था पाई जाती है। चोर चाहे दुनिया भर का माल चुराया करें पर अपने दल के भीतर उन्हे धर्मव्यवस्था रखनी पड़ती है। वे यदि आपस में अन्याय और बेईमानी करने लगे तो उनका दल टूट जाय। अतः सिद्ध