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हुआ कि लोक या समाज को धारण करनेवाला धर्म है। इसी से कहा गया है कि "धर्मो रक्षति रक्षितः" ।

डारविन ने अपने 'मनुष्य की उत्पत्ति' नामक ग्रंथ में विस्तार के साथ दिखाया है कि साथ रहने से उत्पन्न परस्पर सहानुभूति की स्वाभाविक प्रवृक्ति द्वारा मनुष्य किस प्रकार दुसरो की प्रसन्नता और साधुवाद की कामना और उस कामना के अनुसार बहुत से कार्य करने लगा। क्षुधा, इंद्रियसुख, प्रतिकार इत्यादि की निम्न कोटि की वासनाएँ यद्यपि प्रबल होती थी, पर तुष्टि के उपरांत उनका जोर नही रह जाता था। * कितु संग की वासना सदा बनी रहती थी, मनुष्य अकेला रहनेवाला प्राणी नही। सग को अर्थ है सहानुभूति अतः सहानुभूति का भाव अधिक स्थायी रहता था। यदि कोई मनुष्य निम्न कोटि की वासनाओ के वशीभूत हो कर कोई ऐसा कार्य कर बैठता जिससे दूसरो को अप्रसन्नता होती तो वह शांत होने पर उसके लिये पश्चात्ताप करता। विकाशवाद की व्याख्या के अनुसार धर्म कोई अलौकिक, नित्य और स्वतंत्र पदार्थ नही है। समाज के आश्रय से ही उसका क्रमशः विकाश हुआ है। धर्म का कोई ऐसा सामान्य लक्षण नहीं बताया जा सकता जो सर्वत्र और सब काल मे--मनुष्य जाति की जब से उत्पत्ति हुई तब से अब तक--बराबर मान्य रहा हो। समाज की ज्यो ज्यो वृद्धि होती गई यो त्यो धर्म की भावना मे भी देशकालानुसार फेरफार होता गया। कोई समय था जब एक कुल दूसरे कुल की स्त्रियो को चुराता था लड़ कर छीनना अच्छा समझता था। देवताओ की वेद्वियो