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राक्षसविवाह, नियोग, इत्यादि उसी असभ्य कालके न्मारक हैं। तात्पर्य यह कि दूसरे जनपदो को लूटना, दूसरे कुल की स्त्रियो को छीनना, नरवध इत्यादि पहले अधर्म नहीं समझे जाते थे। असभ्य जंगली जातियो मे अब तक ये बातें प्रचलित है। पर सभ्य जातियो के बीच अब ये वहुत बुरी समझी जाती हैं। धर्म का विकाश धीरे धीरे समाज की उन्नति के साथ साथ हुआ है। अत: विकाशवादियो के अनुसार इह लोक या समाज से परे धर्म कोई नित्य और स्वतः प्रमाण पदार्थ नही है।

तत्त्वज्ञवर हर्बर्टस्पेसर ने विकाश सिद्धांत की जो दार्शनिक स्थापना की है उसमे धर्मतत्त्व की भी विस्तृत मीमांसा है। स्पेसर ने अणुजीवों से लेकर मनुष्य तक सब प्राणियो का सूक्ष्म निरीक्षण करके अंत में यही सिद्धांत स्थिर किया कि 'परस्पर साहाय्य की प्रवृत्ति' धर्म की मूल प्रवृत्ति है जो सजीव सृष्टि के साथ ही व्यक्त हुई और उत्तरोत्तर उत्कर्ष प्राप्त करती गई। यह प्रवृत्ति अदि में संतानोत्पादन और संतानपालन के रूप में प्रकट हुई। एकधटात्मक अणुजीवो मे स्त्रीपुरुष भेद नहीं होता। उनकी वंशवृद्धि विभाग द्वारा होती है। अतः हम कह सकते हैं कि संतान के लिये--दूसरे के लिये--अणुजीव अपने शरीर को त्याग देता है। इसी प्रकार आगे के उन्नत श्रेणी के जोड़ेवाले जीव अपनी संतान के लालन पालन के लिये स्वार्थ त्याग करने में प्रसन्न होते हैं। यही प्रवृत्ति बढ़ते बढ़ते इस अवस्था में पहुँचती है कि लोग अपनी संतति के सहायतार्थ ही नहीं अपने जाति भाइयों