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नियम। 'दो और दो चार होते हैं' इसे प्रकृति का नियम नहीं कहना चाहिए। प्रकृति के जितने परिणाम या व्यापार होते हैं वे इस गणित के नियम के आधार नहीं, उनपर यह अवलंबित नहीं, उनसे यह सर्वथा स्वतंत्र है। यह चिन्तन का नियम है, इसका संबंध चित् से है। जिसे हम प्रकृति का नियम कहते हैं वह सत्य भी हो सकता है, असत्य भी। जितने दिक्कालखंड तक हमारी पहुँच है वह उतने ही के बीच के व्यापारो से संग्रह किया हुआ है। पर तर्क और गणित के जो नियम है वे अपरिहार्य सत्य है, उनके अन्यथा होने की भावना त्रिकाल मे नही हो सकती। बाह्य जगत् पर वे निर्भर नही, उससे सर्वथा स्वतंत्र हैं। वे स्वत:प्रमाण हैं। भौतिक विज्ञान में जो ‘प्रकृति के नियम' कहलाते हैं उनकी सत्यता भौतिक व्यापारो या परिणामों के संबंध में ठीक उतरने पर अवलंबित है।

जगद्विकाश का सिद्धांत यही प्रतिपादित करता है कि प्रकृति परिणामपरंपरा में एक अवस्था मात्र है। 'प्रकृति के नियमो' के संबंध मे हम लाख कहा करे कि वे सब काल और सब देश को देख कर निरूपित हुए हैं पर हमें अपनी बात का पूर्ण निश्चय नहीं करा सकते।

इसमे संदेह नही कि विकाशसिद्धांत के नियमो की चरितार्थता के लिये वैज्ञानिक निरंतर प्रयत्न करते जा रहे है जिससे मार्ग की कठिनाइयाँ बहुत कुछ दूर होती जा रही हैं। निर्जीव से सजीव द्रव्य की उत्पत्ति को ही लीजिए। अब लोग यह देखने लगे हैं कि रासायनिकों को सजीव द्रव्य की