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जात्यंतर-परिणाम के अंतर्गत प्राणियो के ढाँचे के भेदविधान के संबंध मे डारविन ने जो निरूपण किया था उस पर भी इधर बहुत कुछ छानबीन हुई है। प्रो० बॅटसन (Bateson) ने इस विषय की उत्पतिविज्ञान के नाम से अलग ही विचार किया है। उन्होंने कहा है कि भेदविधान दो प्रकार के होते हैं—(१) अखंड वा व्यापक और (२) विशिष्ट। डारविन ने अपने प्राकृतिकग्रहण-सिद्धांत में केवल प्रथम का विचार किया है, दूसरे का नही। पर कुछ भेद जो जात्यंतर के लक्षण माने जाते हैं एकही पुश्त मे साधारण भेदविधान द्वारा उपस्थित हो सकते हैं। सच पूछिए तो उत्पन्न प्राणी के लक्षणो मे से बहुत थोड़े ऐसे होते है जो मातापिता के धातुगत लक्षणो से सघटित होते हैं। इन लक्षणो की प्राप्ति भी कुछ बँधे नियमो के अनुसार होती है। जैसे, यदि मातापिता मे से किसी मे कोई लक्षण विशेष नहीं है तो किसी संतति में वह लक्षण न होगी। यदि दोनो मे कोई एक लक्षण वर्तमान है तो सब बच्चो मे वह पाया जायगा। यदि कोई लक्षण मातापिता मे से एक ही मे है, दूसरे में नही तो आधे लड़को मे वह होगा आधे मे नही। इसमे एक बात जो ध्यान देने की है वह यह है कि लक्षण की एक स्थिर मात्रा रहती है जैसे यदि मातापिता मे से एक ही में कोई लक्षण है तो आधे संतानों मे ही वह लक्षण जायगा।

विकाशवाद जगत् की समस्याओं के संबंध मे हमारा कहाँ तक समाधान करता है चलती नजर से यह भी देख लेना चाहिए।

जगत् के संबंध मे दो प्रकार की जिज्ञासा हो सकती है---