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जो विधायक आत्मा को भूतसमष्टि विश्व में समवेत या ओतप्रोत मानते हैं वे भी इन्हीं के अंतर्गत लिए जा सकते हैं क्योकि अद्वैतवादियो के अंतर्गत वे नही आ सकते। आधिभौतिक अद्वैतवादी कहते हैं कि समवायिकारण ही मानने से प्रकृति के सब व्यापारो की सम्यक् व्याख्या हो जाती है, उद्देश्य रखनेवाले किसी निमित्त कारण को मानने की आवश्यकता नही। भूतद्रव्य और उसकी गतिशक्ति द्वारा ही जगत् का विकाश होता है। वे किसी भूतातीत नियंता का अस्तित्व नही स्वीकार करते और न आत्मा को कोई नित्य चेतन पदार्थ मानते है। संपूर्ण व्यापार द्रव्य और उसकी गतिशक्ति द्वारा आप से आप होते हैं। *

आधिभौतिक पक्षवालो को चेतना की व्याख्या मे अड़चन पड़ती है सर्वथा जड़ से चतन की उत्पति वे समाधानपूर्वक नही समझा सकते है। इस बाधा से बचने के लिये वे दो निकास निकालते हैं। कुछ लोगों को तो ईथर के समान एक अत्यंत सूक्ष्म मूल मनोभूत ( जो प्रकृति या प्रधान भूत का ही एक विकार है ) या आत्मभूत की कल्पना करनी पड़ी है जिससे प्राणियो के मन या आत्मा की योजना हुई है। कुछ


*साख्यं मे भी प्रधानभूत या प्रकृति का स्वभाव ही परिणाम कहा गया है, उसमे प्रवृशि आपसे आप होती है, किसी की प्रेरणा से नहीं। प्रकृात जड़ है, अतः यह प्रवृत्ति भी अचेतन है---

वत्सदिवृद्धिनिमितं क्षीरस्य यथा प्रवृत्तिरज्ञस्य।

पुरुषविमोक्षनिमिर्त तथा प्रवृत्ति प्रधानस्य।।---कारिक ५७