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है। जीवो की उत्पति-परंपरा मे जब यह सामंजस्य एक विशेष जटिल अवस्था को पहुँच जाता है तब मन ( चेतना जिसकी वृत्ति है ) का प्रादुर्भाव होता है। शक्तिसंयुत द्रव्य के साथ साथ कोई नित्य चेतन सर्वसत्ता भी ओतप्रोत भाव से रहती है इस विषय मे उसने कुछ नहीं कहा है। चेतना को उसने उन्ही प्राणियो मे माना है जिनमें संवनसूत्रो और मस्तिष्क का पूर्ण विधान होता है। चेतना को उसने कोई एकांतिक अखंड सत्ता न कह कर एक यौगिक व्यापार ही कहा है जिसकी गूढ़ योजना अत्यंत सादे और सूक्ष्म अव्यक्त संवेदनो के योग से होती है। स्मृति, संकल्प, विवेचना, मनोवेग इत्यादि सब वृत्तियाँ इन्ही आदिम मूल संवेदनो के संबंधभेद से संघटित है। अंतःकरण-वृत्तियो के नाना रूपो की संप्राप्ति वाह्य विषयो के साथ सामंजस्य-प्रयत्न द्वारा होती है। दिक्संबंधी, * धर्म--


* रेखागणित के निरूपण दिक् संबंधी होते हैं, जैसे, 'केवल दो रेखाएँ कोई स्थान नहीं घेर सकतीं, 'दो समानांतर रेखाएँ कभी नहीं मिल सकती' । ऐसे निरूपणो को भी ह्यूम आदि सवेदनवादी दार्शनिको ने स्वतःसिध्द न कह कर अनुभवसिद्ध बतलाया है। यह देखते देखते कि दो रेखाए कोई स्थान नहीं घेर सकतीं, दो समानातर रेखाएं कभी नहीं मिलतीं' मनुष्य जाति के भीतर लाखों पीढियो से जो सस्कार बँधा चला आया है उसी के कारण ये बाते स्वतः सिद्ध सी जान पड़ती हैं। आत्मसत्तावादी, जैसा कि पहले कहा जा चुका है, इन्हे इद्रियज सवेदनों से प्राप्त नहीं मानते। वे कहते है कि हमारा जो यह निश्चय है कि ऐसा होना त्रिकाल में और किसी