पृष्ठ:विश्व प्रपंच.pdf/११६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
( १०९ )


सस्कार जम गया कि जिन कार्यों से औरो की आकृति क्रूर हो जाय उनसे बचना और जिनसे प्रसन्न हो उन्हे करना चाहिए। अर्थात् आरंभ मे भय और आनंद द्वारा ही उपादेय और अनुपादेय का भाव उत्पन्न हुआ। यही मूलभय क्रमशः देवभय आदि के रूप मे और मूल आनंद देवतुष्टि या स्वर्ग आदि के आनद के रूप मे विकसित हुआ। दयाधर्म के संबंध मे अधिभौतिक विकाशवादियो का कहना है कि उसकी उत्पत्ति सहानुभूति से है जिसका विकाश समाज बाँध कर रहनेवाले प्राणियो में स्वाभाविक है। एक ही प्रकार का आहार विहार रखनेवाले प्राणी जब एक दूसरे के समक्ष एकही प्रकार के मनोद्गार प्रकट करते है तब उन मनोद्गारो के संबंध मे भी एक प्रकार का मानसिक सहयोग स्थापित हो जाता है। यही सहानुभूति है जिसके कारण मनुष्य दूसर की पीड़ा पहुँचाने से बचता है और दूसरे की पीड़ा देख कर दुखी होता है। सौन्दर्य की ओर जो प्रवृत्ति पाई जाती है वह एक प्रकार की फालतू वृत्ति या क्रीड़ावृत्ति है जो प्रयोजन से अधिक मानसिक वृत्तियो के विकाश के कारण उत्पन्न होती है।

स्पेसर ने शरीरविकाश और समाजविकाश का तारतम्य दिखा कर कहा है कि जिस प्रकार प्राणी की जीवनयात्रा उपस्थित वाह्य विषयो के साथ आभ्यंतर वृत्तियो का सामंजस्यप्रयत्न है उसी प्रकार प्राणियो की समष्टि या समाज की जीवनयात्रा भी। अतः वह युग आवेगा जब यह सामंजस्य पूर्ण रूप से स्थापित हो जायगा और मनुष्य-जीवन आनन्दमय हो जायेगा।