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स्पेंसर ने विकाश की जो व्याख्या की है वह आधिभौतिक ही है। सब प्रकार की चेतना को उसने मूल संवेदनो से संघटित बताया है जो सूत्रों की अणुस्पंदन रूप गति के सहगामी हैं। पर उसने यह भी कहा है कि इन संवेदनो को हम उसी भौतिक गतिका रूप नही कह सकते जिसे हम चारो ओर देखते है। विषय और विषयी को, ज्ञाता और ज्ञेय को किसी प्रकार एक नही समझते बनता * । इस प्रकार भूतक्रिया और मनोव्यापार का पृथक्त्व स्वीकार करते हुए भी उसने दोनो को एक ही अज्ञेय सत्ता के दो पक्ष या रूप कहा है। पर इस रीति से अद्वैतपक्ष पर आने पर भी द्रव्य और मन ( या आत्मा ) की पृथक् भावना द्वारा उसका द्वैतवाद लक्षित होता है। हैकल के समान उसने जड़ और चेतन व्यापारो को एक ही नहीं कहा है, दोनो को अलग रखा है। हैकल ने परमतत्व के जो दो पक्ष कहे हैं वे द्रव्य और गतिशक्ति (जिसके अंतर्गत संवेदन, संकल्प विकल्प, आत्मबोध आदि मनोव्यापार भी है) है। स्पेसर ने अज्ञेय सत्ता के जो दो पक्ष कहे है वे गतिशक्तियुक्त द्रव्य और मन हैं। "मन (चेतन अवस्थाएँ ) और सवेदनसूत्रो की भौतिक क्रिया एक ही वस्तु के विषयी और विषय अर्थात् ज्ञातृ और ज्ञेय दो पक्ष हैं। दोनों के एक ही वस्तु के रूप या विभाव होने का प्रमाण उनका नित्य संबंध है। वह वस्तु या सत्ता जिसके ये दोनो पक्ष हैं ज्ञेय पक्ष में नही आ सकती है।

इस प्रकार वस्तु या सत्ता के विवेचन मे उसने अपने को भूतवादी कहे जाने से यह कह कर बचाया है कि "एक


*जेय ज्ञेयमव ज्ञाता ज्ञातैव न ज्ञेय भवति-गीता, शकर भाष्य १३।३