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अब प्रश्न यह होता है कि क्या विकाशवाद जगत् के समस्त व्यापारों के मूल की सम्यक् व्याख्या कर देता है? सच पूछिए तो उसकी पहुँच की भी हद है। शरीरविकाश और आत्मविकाश को ही लीजिए। शरीरव्यापार और मनोव्यापार दोनो में एक ही प्रकार के नियमो की चरितार्थता, दोनो का साथ साथ उत्तरोत्तरक्रम से विकाश, दिखाया गया है सही, पर दोनो एक नही सिद्ध हो सके है। विकाशवाद के सारे निरूपण सन या आत्मा की प्रथमोत्पत्ति नही समझा सके हैं। और तो जाने दीजिए किस प्रकार संवेदनसुत्र का भौतिक ( स्थूल ) स्पंदन सवेदन के रूप में परिणत हो जाता है यही रहस्य नही खुलता। इस प्रकार का और कोई परिणाम भैतिक जगत् मे देखने मे नहीं आती। इस कठिनता को कुछ लोग यह कह कर दूर किया चाहते हैं कि द्रव्य के प्रत्येक परमाणु मे एक प्रकार की अतःसंज्ञा या अव्यक्त संवेदन होता है जो आकर्षण और अपसारण के रूप मे प्रकट होता है। पर हम तो चेतना ( मन की अपने ही संस्कारो के बोध की वृत्ति ) की उत्पति जानना चाहते हैं जिससे यह अंतःसंज्ञा भिन्न है। हैकल ने मस्तिष्क के भीतर प्रतिबिंब या संस्कार ग्रहण करनेवाला जो एक प्राप्यकारी अवयव बताया है उससे भी चेतना का व्यापार समझने में सुवीता नही होता। केवल यही कह देने से कि एक वस्तु पर प्रतिबिंब पड़ता है यह समझ में नहीं आ जाता कि वह वस्तु यह बोध भी करती है कि मुझ पर प्रतिबिंब पर रहा है या प्रतिबिंब इस प्रकार का है* ।


* यह दिखाया जा चुका है कि किस प्रकार वैज्ञानिको ने "शक्ति