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ऐसी बातो मे हमारा समाधान विकाशवाद द्वारा नही होता। विकाशवाद केवल गोचर व्यापारी की पूर्वापरपरंपरा या स्फुरणक्रम मात्र दिखाता है। ये सब व्यापार किसके हैं, वस्तु या सत्ता का शुद्ध (इंद्रियनिरपेक्ष) स्वरूप क्या है यह वह नहीं बताता। वह केवल तटस्थ लक्षण कहता है, स्वरूप लक्षण


के अक्षरता' के सिद्धात को ले कर यह प्रतिपादित किया है कि न भैतिक शक्ति किसी अभौतिक शक्ति के रूप में परिणत हो सकती है और न कोई अभौतिक शक्ति भौतिक शक्ति में कोई वृद्धि (अतिशय) या विकार कर सकती है। मनोविज्ञानियो ने इसी आधार पर यह सिद्धात स्थिर किया कि शरीर-व्यापार और मनोव्यापार एक दूसरे पर कोई प्रभाव नहीं डाल सकते अर्थात् उनमे कार्यकारण सबंध नही, वे दोनो समानातर (साथ साथ पर अलग अलग) चलते हैं। जय आधिभौतिक अद्वैतवादी इस बात को अपनी ओर यह सिद्ध करने के लिये ले गए कि जगत् किसी आत्मसत्ता या चेतन का कार्य्य नहीं है और प्राणियो के प्रयक्ष किसी अभौतिक सत्ता द्वारा प्रेरित या उत्पन्न नहीं होते तब ईश्वरकर्तृत्ववादी इसके खडन के प्रयास में लगे (दे• भूमिका >> ८४) । पर इमारे यहाँ वेदात में क्रिया मात्र से शुद्ध चैतन्य (ज्ञान) की भावना अलग होने से उपर्युक्त वैज्ञानिक सिद्धात स्वीकृत है। उपदेसाइबी की टीका (१०|११२) मे स्पष्ट लिखा है कि 'सन्निहिता यक्ष कृतातिशयः बुद्धयादेर्नास्त्येव। यह भी खोल कर लिखा गया है कि बुद्धयादि जड़ क्रिया और शान में केवल सिमकालाभिव्यक्ति धर्म के सिवा और कोई संबंध नहीं है। यह वेदांत का Psychophysical parallelism है।