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नही। अतः सत्ता के विवेचन के लिये हमें विज्ञान-क्षेत्र से निकल कर परा विद्या या शुद्ध दर्शन की ओर आना पड़ता है।

यह जगत् क्या है? इसकी सत्ता का वास्तव स्वरूप क्या है? इस संबंध मे दर्शन मे दृष्टिभेद से तीन पक्ष है (१) भूतवाद या लोकायत मत जिसके अनुसार शरीर या भूत ही एक मात्र सत्ता है; (२) अद्वैत आत्मवाद या भाववाद। अद्वैत आत्मवादियो मे कुछ लोग तो आत्मा को एक वस्तु या सत्ता मानते हैं और कुल लोग बौद्धो के समान क्षणिक विज्ञानो या चेतन अवस्था को ही मानते हैं। पर दोनो दल के लोग भौतिक शरीर या वाह्य जगत् की स्वंतत्र सत्ता अस्वीकार करते है। (३) बाह्यार्थवाद, * जो भूत और आत्मा दोनो को भिन्न सत्ताएँ मान कर बाह्य जगत् को वास्तविक कहता है।

( १ ) भूतवाद के अनुसार जो कुछ है वह भूते ही है, जिसे हम आत्मा कहते हैं वह उसकी व्यापारसमष्टि या गुण विशेष मात्र है। यद्यपि हैकल ने अपने मत का नाम भूतवाद नही रखा है पर है वह भूतवाद ही। जगत् के मूल उपादान या प्रधान भूत तक पहुँच कर उसने उसका नाम परमतत्व रखा जो नित्य है और अपने नित्य नियमो से बद्ध है। उस परमतत्त्व की अभिव्यक्ति द्रव्य और गतिशक्ति दो रूपो मे होती है। मूल वृत्त या प्रवृत्ति ही उसका संवेदन ( जड़ संवेदन )


* एवं बाह्यार्थवादमाश्रित्य समुदायाप्राप्त्यादिषु दूषणेषूद्भावितेषु विज्ञानवादी बौद्ध इदानी प्रत्यवतिष्ठते।-----सूत्र २८ पर, शकर भाष्य।

उपनिषदों में इसे प्राणशक्ति कहा है जिससे चैतन्य भिन्न है ।