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है जिसके कारण वह स्थान स्थान पर घनीभूत हो कर अनेकत्व की ओर प्रवृत्त हुआ। परमाणुओं की प्रवृत्ति में वह कुछ और अधिक व्यक्त हुआ। शुक्र कीटाणुओ और रजः कीटाणुओ मे हैंकल ने घटकात्मा कहा, गर्भाड में अंकुरात्मा, पौधो मे तंत्वात्मा और जंतुओं में सूत्रात्मा। इस प्रकार संवेदन को भूत का व्यापक गुण मान कर उसने अपने सिद्धांत का नाम भूतवाद न रख कर तत्त्वाद्वैतवाद रखा। पर उसका यह संवेदन जड़ ही है अतः उसका जड़ाद्वैतवाद वास्तव मे भूतवाद ही है। चैतन्य की असंहत नित्य सत्ता का स्वीकार उसमे नही है। उसके संवेदन को यदि हम एक प्रकार की आत्मव्यापार मान भी ले तो भी वह क्रिया या गुण मात्र ही है, वस्तु या सत्ता नही।

भारतवर्ष का चार्वाक या लोकायत मत भी इसी प्रकार का था जो चैतन्यविशिष्ट देह के अतिरिक्त आत्मा की कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं स्वीकार करता था * । चार्वाको का कहना था कि जिस प्रकार किण्व या ख़मीर से मदशक्ति उत्पन्न हो जाती है उसी प्रकार देहाकारपरिणत भूतचतुष्टय से चैतन्य उत्पन्न होता है। भूतों के इस संयोग विशेष के नष्ट होने पर वह भी नष्ट हो जाता है।

(२) योरप, में अध्यात्मवाद या भाववाद का आरंभ डेकोर्ट के इस सूत्र से समझना चाहिए कि "मैं वोध करता हूँ इस लिये मैं हूँ"। उसने कहा जो कुछ बोध आत्मा को


चैतन्यविशिष्ट देह एवात्मा, देहातिरिक्त आत्मनि प्रमाणाभायवात्।---चार्वाक ( सर्षदर्शनसंग्रह )।