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वर्गों से जिस प्रकार हमे अपने से वाह्य वस्तु का जैसा, विविक्त ज्ञान होता है प्रज्ञा या बुद्धि के इन आरोपित भावो से वैसे ज्ञान की उत्पत्ति नही होती। बुद्धि अपनी ओर से इनका आरोप भर करती है, विषय रूप मे ग्रहण नहीं करती। इन भावो से केवल इतना ही होता है कि अनुमान के जो वर्गात्मक खंड हैं वे चरमावस्था को पहुँच जाते है, बस। ईश्वर आत्मा और जगत् क्या है बुद्धि नही स्थिर कर सकती। इस प्रकार कान्ट ने दिखाया है कि प्रत्यक्ष, अनुमान और प्रज्ञा के जो सांसिद्धिक स्वरूप ( देश, काल, वर्ग तथा ईश्वर आत्मा और जगत् ) हैं वे वाह्य वस्तु के स्वरूप नही हैं, मन के स्वरूप है जिनमे लाकर वह वाह्य जगत् को देखता है। बुद्धि आदि द्वारा बाह्य जगत् का जो वोध होता है वह नामरूपात्मक है, वास्तव नही है। इंद्रिय और मन अपने रंगो में रँग कर जिन रूपो मे जगत् को देखता है उनसे स्वतंत्र उसकी वास्तव सत्ता किस प्रकार की है यह ज्ञान शुद्ध बुद्धि द्वारा नहीं हो सकता। अपनी 'शुद्ध बुद्धि की परीक्षा' में कान्ट ने ईश्वर, जगत् और आत्मा के पक्ष विपक्ष के प्रमाणों का खंडन किया है।

शुद्ध बुद्धि की परीक्षा के उपरांत कान्ट ने कर्मसंकल्प रूपिणी "व्यवसायात्मिका बुद्धि" को लिया है जिसके द्वारा कर्म होते हैं।कर्मक्षेत्र में आकर हम नामरूपात्मक जगत् से परे वस्तुतत्व तक पहुँच जाते हैं। संकल्पित कार्यावली हमारे मन मे उत्पन्न होकर बाह्य जगत् मे अभिव्यक्त होती है। कर्म सकल्पवृत्ति ही चित् के वास्तव स्वरूप को सूचित करती है। यह न तो, बुद्धि से बद्ध या नियंत्रित है और न बाह्य जगत् के